बिहार के अनेक ज़िलों के घने जंगलों में रहनेवाली आदिम जातियों की अनुभूतियों, पुरा-कथाओं और सनातन विश्वासों में सिझी सजीव, सचेत आस्था का चित्रण। जंगलों को माँ की तरह पूजा करनेवाले, अमावस की रात के अँधेरे से भी काले—और प्रकृति जैसे निष्पाप—मुंडा, हो, हूल, संथाल, कोल और अन्य बर्बर (?), असभ्य (?) जातियों द्वारा शोषण के विरुद्ध और जंगल की मिल्कियत के छीन लिए गए अधिकारों को वापस लेने के उद्देश्य से की गई सशस्त्र क्रान्ति की महागाथा।
25 वर्ष का अनपढ़, अनगढ़ बीरसा उन्नीसवीं शती के अन्त में हुए इस विद्रोह में संघर्षरत लोगों के लिए ‘भगवान’ बन गया था, लेकिन ‘भगवान’ का यह सम्बोधन उसने स्वीकार किया था उनके जीवन में, व्यवहार में, चिन्तन में और आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में आमूल क्रान्ति लाने के लिए।
कोड़ों की मार से उधड़े काले जिस्म पर लाल लहू ज़्यादा लाल, ज़्यादा गाढ़ा दीखता है न। इस विद्रोह की रोमांचकारी, मार्मिक, प्रेरक सत्यकथा है—‘जंगल के दावेदार’। हँसते-नाचते-गाते, परम सहज आस्था और विश्वास से दी गई प्राणों की आहुतियों की महागाथा—‘जंगल के दावेदार’।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Jagat Shankhdhar |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1979 |
Edition Year | 2023, Ed. 13th |
Pages | 284p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1.5 |