महाश्वेता देवी की रचनाओं में ‘जनगणमन’ के स्वप्न, संकल्प व संघर्ष प्रतिबिम्बित होते हैं। उनकी कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रश्नों से टकराती हैं। मुक्तिबोध का स्मरण करें तो महाश्वेता देवी की रचनाएँ ‘सभ्यता-समीक्षा’ करती हैं। आदिवासी, वनवासी, किसान, मज़दूर, वंचित, उत्पीड़ित और संघर्षरत असंख्य जन उनकी कहानियों में अभिव्यक्ति पाते हैं।
महाश्वेता जी के शब्द आज की स्थितियों में एक नवीन प्रासंगिकता प्राप्त करते हैं। ‘जल-जंगल-ज़मीन’ की लड़ाई में जब स्थितियाँ अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँच रही हैं तब उनकी कहानियाँ कौंधने लगती हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के सन्दर्भ में कहा है—‘ज़मीन के लिए आदिवासियों के दीर्घ समय से क्षोभ तथा आक्रोश के परिणामस्वरूप नक्सल आन्दोलन का जन्म हुआ था। मैं उन लोगों की लड़ाई में काफी यक़ीन रखती हूँ।’ ‘कथा-साहित्य’ के माध्यम से सामाजिक संघर्ष के इस पक्ष को लिखनेवाले थोड़े से लेखकों में महाश्वेता जी सर्वोपरि हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं।
महाश्वेता जी की कहानियों के महत्त्वपूर्ण होने का एक बड़ा कारण सरोकार, संवेदना और संरचना में अद् भुत सामंजस्य है। विचार-रक्त की भाँति प्रवाहित हैं, वस्त्र की तरह पहने नहीं गए हैं। यही वजह है कि विमर्शों की स्थूल प्रक्रिया से विलग उनका लेखन स्त्रियों और दलितों की पक्षधरता का सशक्त उदाहरण है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2013 |
Edition Year | 2022, Ed. 2nd |
Pages | 876p |
Translator | Meeta Ghosh |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 6 |