Hulhulia-Hard Cover

Author: Ravindra Bharti
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ISBN:9789391950880
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रवीन्द्र भारती हिन्दी के उन नाटककारों में हैं जिनके लिखे नाटक पिछले कुछ दशकों से हिन्दी रंगमंच पर लोकप्रिय रहे हैं। उनके लेखकीय सरोकार व्यापक हैं। वे उन समस्याओं, दुश्चिन्ताओं को अपनी रचना में ला रहे हैं जिनसे मनुष्य और समुदाय की पहचान जुड़ी है।

‘हुलहुलिया’ नाटक एक कल्पित जनजाति हुलहुलिया के बारे में है। यह जनजाति पेड़ और पानी के बारे में गहरी जानकारी रखती है। अपने को पेड़ और पानी का डॉक्टर कहती है पर उसकी अपनी पहचान संकट में है। उसके पास कहीं के निवासी होने का कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं है। ऐसे समूहों में ज़्यादातर घुमन्तू जनजातियाँ हैं, जिनका मानव-सभ्यता में बड़ा योगदान रहा है। वे नए आविष्कारों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाती रही हैं, लेकिन राष्ट्र-राज्य के उदय के बाद वे अपने को संकट में पा रही हैं। राज्य उनके होने का प्रमाण माँगता है जो उनके पास नहीं है। उनका क्या होगा? ‘हुलहुलिया’ नाटक ऐसे ही सवालों को उठाता है।

नाटक जिस सामाजिक पक्ष की तरफ इशारा करता है, उसकी चर्चा भी ज़रूरी है। जिस कल्याणकारी राज्य की स्थापना आम लोगों के हित में की गई थी, या कम से कम ऐसा सोचा गया था, वह आज अपने में बेहद आततायी बनता जा रहा है। उसके भीतर जो कल्याणकारी तत्त्व बचे हुए थे, उन्हें भी बड़ी पूँजीवाले हड़प ले रहे हैं। ‘हुलहुलिया’ मुख्य रूप से इसी सच का साक्षात्कार कराता है।

—रवीन्द्र त्रिपाठी ‘राष्ट्रीय सहारा’, दिल्ली

‘हुलहुलिया’ प्रसिद्ध कवि-नाटककार रवीन्द्र भारती का बेहद महत्त्वपूर्ण नाटक है। अपने जीवन्त समस्याकुल कथ्य के कारण बहुत गहरे उतरने वाला यह नाटक आदिवासियों की लुप्तप्राय: आबादी और उनके संघर्ष को व्यक्त करता है और प्रकारान्तर से परम्परा, संस्कृति और मूल्यों को बचाने के हर तरह के संघर्ष का नाटक बन जाता है। अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते लोग उस समय हमारी प्रेरणा बनने लगते हैं जब हम अपनी सुविधाओं की चीज़ों को एक-एक कर नष्ट होते देखते हैं। इस रूप में देखें तो यह नाटक जहाँ समाप्त होता है, वहीं से असल समस्या शुरू होती है। हमारी छीनी जा रही ज़मीन, मिटाए जा रहे जंगल, नष्ट होते स्वदेशी उद्योग, पहाड़ों को तोड़कर बनते मॉल, नदियों को निगलते बाँध और एकरूप बनाई जा रही सांस्कृतिक पहचान उस बहुलतावादी और वैविध्यपूर्ण परम्परा को मिटा डालने की घृणित योजना का हिस्सा हैं जिसमें हमारा कुछ भी नहीं बचनेवाला।

इस रूप में देखें तो यह नाटक मनुष्य जीवन के बुनियादी सवालों का नाटक बन जाता है।

—ज्योतिष जोशी ‘अमर उजाला’, दिल्ली

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2023
Edition Year 2023, Ed. 1st
Pages 120p
Price ₹395.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 1.5
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Ravindra Bharti

Author: Ravindra Bharti

रवीन्द्र भारती

आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—‘जड़ों की आख़िरी पकड़ तक’, ‘धूप के और क़रीब’, ‘यह मेरा ही अंश है’, ‘नचनिया’, ‘नाभिनालऔर जगन्नाथ का घोड़ा’ (कविता-संग्रह); ‘कम्पनी उस्ताद’, ‘फूकन का सुथन्ना’, ‘जनवासा’, ‘अगिन तिरियाऔर कौआहंकनी’ (नाटक)।

उनकी कविताएँ कई भाषाओं में अनूदित हुई हैं। नाटकों के भी अनेक मंचन हुए हैं जिन्हें रंगकर्मियों और दर्शकों, सभी ने सराहा है। कौआहंकनीनाटक पर फिल्म भी बनी है।

सम्मान और पुरस्कार : बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का विशिष्ट साहित्य सेवा सम्मान, दिनकर सम्मान, मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार से सीनियर फेलोशिप।

सम्पर्क : ravinderbharti12@yahoo.com

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