प्रकृति और मानवता, ये दो बिन्दु गोपाल सिंह नेपाली के कवि-मन की स्थायी धुरी रहे हैं—एक तरफ प्रकृति में निहित असीम सौन्दर्य और सम्भावनाएँ, दूसरी तरफ पराधीनता, विषमता, शोषण और अभावों के बीच डूबती-उतराती-हाँफती मनुष्यता। उनकी कविताओं में ये दोनों ही सरोकार प्रबल रूप में अपनी उपस्थिति जताते हैं।
‘नीलिमा’ में संग्रहीत कविताओं में ये दोनों भाव देखे जा सकते हैं। ‘गगन भी नील नयन भी नील’ इस संग्रह की पहली कविता है। इस कविता में आई तुलनात्मक भावधारा को नेपाली जी अपने लिए किंचित नई एवं भिन्न मानस-क्षितिज की वस्तु मानते थे।
कविता के छात्रों और सर्जकों के लिए आज भी उनकी कविताएँ इसलिए प्रासंगिक और पठनीय हैं कि जीवन और मन के हर भाव को कविता में व्यक्त करने का सतत प्रयास उनके यहाँ दिखता है, और यह सिर्फ वर्णन नहीं है, विचार, दृष्टि और अनुभूति को एक जगह जोड़ता छन्द-बद्ध काव्य है।
‘तारों की रात’, ‘संध्या गान’, ‘प्रभातगान’, ‘धार पर जले लहर के दीप’ आदि अनेक कविताएँ हैं जो प्रकृति को देखने के लिए हमें एक विशेष दृष्टि देती हैं, वहीं ‘कवि’ शीर्षक गीत में वे मनुष्य संसार से प्राप्त भावनाओं को भी व्यक्त करते हैं :
जग को दुख है, जग रोता है/कुछ पाता है, सब खोता है
युग-ईश्वर की बलि-वेदी पर/जग बार-बार बलि होता है
मैं जग के दुख में शामिल हूँ इन आँखों में जलधार लिये।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2025 |
Edition Year | 2025, Ed. 1st |
Pages | 96p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 20 X 13 X 1 |