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Narendra-Mohini

Edition: 2024, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan - Remadhav
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Narendra-Mohini

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घूमते-घूमते इस नौजवान बहादुर के कान में एक दर्दनाक रोने की आवाज आई जिसे सुनते ही वह चौंक उठा और इधर-उधर ध्यान लगा कर देखने लगा, मगर फिर वह आवाज न सुन पड़ी।

वह दर्दनाक आवाज ऐसी न थी कि जिसे सुनकर कोई भी अपने दिल को सम्हाल सकता। हमारा नौजवान बहादुर तो एक दम परेशान हो गया, क्योंकि यह जितना दिलेर और ताकतवर था उतना ही नेक ओ रहमदिल भी था। आवाज कान में पड़ते ही मालूम हो गया था कि यह किसी कमसिन औरत की आवाज है जिस पर कोई जुल्म हो रहा है। इससे आखिर न रहा गया और यह उसी आवाज की सीध पर पश्चिम की तरफ चल निकला। थोड़ी ही दूर जाने पर फिर वैसी ही दर्दनाक आवाज इस बहादुर के बाईं तरफ से आई जिसे सुन यह बाईं तरफ को मुड़ा और थोड़ी ही देर में उस जगह जा पहुँचा जहाँ से वह पत्थर जैसे कलेजे को भी गलाकर बहा देने वाली आवाज आ रही थी।

लोमहर्षक दृश्यों और कहानियों के रचेता देवकीनन्दन खत्री के इस उपन्यास ‘नरेन्‍द्र-मोहिनी’ के केन्द्र में एक प्रेम-कथा है। कहानी बिहार के दो राजघरानों से सम्बन्ध रखती है। उनकी संतानों में एक नरेन्द्र रंभा से विवाह न करके घर से भाग जाता है और मोहिनी से प्रेम करने लगता है। लेकिन प्रेम की अप्रत्याशित स्थितियाँ उसके सामने आती रहती हैं। मोहिनी की दो बहनें हैं केतकी और गुलाब। इसी केतकी के घर नरेन्द्र की भेंट पुन: रंभा से होती है... टेढ़ी-मेढ़ी राहों से चलती हुई यह प्रेमकथा हमें देवकीनन्दन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों की भी याद दिलाती है, और एक नए परिवेश से भी परिचित कराती है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2024
Edition Year 2024, Ed. 1st
Pages 183p
Publisher Radhakrishna Prakashan - Remadhav
Dimensions 20.5 X 13.5 X 1.5
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Author: Devkinandan Khatri

देवकीनन्दन खत्री

देवकीनन्दन खत्री का जन्म 18 जून, 1861 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ। हिन्दी और संस्कृत में प्रारम्भिक शिक्षा वहीं हुई। फ़ारसी से स्वाभाविक लगाव था, पर पिता की अनिच्छावश शुरू में फ़ारसी नहीं पढ़ सके। इसके बाद 18 वर्ष की अवस्था में, जब गया ‌स्थित टिकारी राज्य से सम्बद्ध अपने पिता के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से हाथ बँटाने लगे तो फ़ारसी और अंग्रेज़ी का भी अध्ययन किया। 24 वर्ष की आयु में व्यवसाय सम्बन्धी उलट-फेर के कारण वापस काशी आ गए और काशी नरेश के कृपापात्र हुए। परिणामतः मुसाहिब बनना तो स्वीकार न किया, लेकिन राजा साहब की बदौलत चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका पा गए। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और वे अनुभव भी मिले जो उनके लेखकीय जीवन में काम आए। वस्तुतः इसी काम ने उनके जीवन की दिशा बदली।

स्वभाव से मस्तमौला, यारबाश क़िस्म के आदमी और शक्ति के उपासक। सैर-सपाटे, पतंगबाज़ी और शतरंज के बेहद शौकीन। बीहड़ जंगलों, पहा‌ड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखनेवाले। विचित्रता और रोमांचप्रेमी। अद्भुत स्मरण-शक्ति और ‍उर्वर कल्पनाशील मस्त‌िष्क के धनी।

‘चन्द्रकान्ता’ पहला ही उपन्यास, जो सन् 1888 में प्रकाशित हुआ। सितम्बर, 1898 में लहरी प्रेस की स्थापना की। ‘सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ (छह भाग) के अतिरिक्त देवकीनन्दन खत्री की अन्य रचनाएँ हैं—‘नरेन्द्र-मोहिनी’, ‘कुसुमकुमारी’, ‘वीरेन्द्र वीर या कटोरा-भर ख़ून’, ‘काजल की कोठरी’, ‘गुप्त गोदना’ तथा ‘भूतनाथ’ (प्रथम छह भाग)।

1 अगस्त, 1913 को उनका निधन हुआ।

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