
Devkinandan Khatri
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देवकीनन्दन खत्री
देवकीनन्दन खत्री का जन्म 18 जून, 1861 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ। हिन्दी और संस्कृत में प्रारम्भिक शिक्षा वहीं हुई। फ़ारसी से स्वाभाविक लगाव था, पर पिता की अनिच्छावश शुरू में फ़ारसी नहीं पढ़ सके। इसके बाद 18 वर्ष की अवस्था में, जब गया स्थित टिकारी राज्य से सम्बद्ध अपने पिता के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से हाथ बँटाने लगे तो फ़ारसी और अंग्रेज़ी का भी अध्ययन किया। 24 वर्ष की आयु में व्यवसाय सम्बन्धी उलट-फेर के कारण वापस काशी आ गए और काशी नरेश के कृपापात्र हुए। परिणामतः मुसाहिब बनना तो स्वीकार न किया, लेकिन राजा साहब की बदौलत चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका पा गए। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और वे अनुभव भी मिले जो उनके लेखकीय जीवन में काम आए। वस्तुतः इसी काम ने उनके जीवन की दिशा बदली।
स्वभाव से मस्तमौला, यारबाश क़िस्म के आदमी और शक्ति के उपासक। सैर-सपाटे, पतंगबाज़ी और शतरंज के बेहद शौकीन। बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखनेवाले। विचित्रता और रोमांचप्रेमी। अद्भुत स्मरण-शक्ति और उर्वर कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी।
‘चन्द्रकान्ता’ पहला ही उपन्यास, जो सन् 1888 में प्रकाशित हुआ। सितम्बर, 1898 में लहरी प्रेस की स्थापना की। ‘सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ (छह भाग) के अतिरिक्त देवकीनन्दन खत्री की अन्य रचनाएँ हैं—‘नरेन्द्र-मोहिनी’, ‘कुसुमकुमारी’, ‘वीरेन्द्र वीर या कटोरा-भर ख़ून’, ‘काजल की कोठरी’, ‘गुप्त गोदना’ तथा ‘भूतनाथ’ (प्रथम छह भाग)।
1 अगस्त, 1913 को उनका निधन हुआ।