Chandrakanta Santati : Vols. 1-6

Edition: 2024, Ed. 3rd
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Chandrakanta Santati : Vols. 1-6
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‘चन्द्रकान्ता’ का प्रकाशन 1888 में हुआ। ‘चन्द्रकान्ता’, ‘सन्तति’, ‘भूतनाथ’—यानी सब मिलाकर एक ही किताब। पिछली पीढ़ियों का शायद ही कोई पढ़ा-बेपढ़ा व्यक्ति होगा जिसने छिपाकर, चुराकर, सुनकर या ख़ुद ही गर्दन ताने आँखें गड़ाए इस किताब को न पढ़ा हो। चन्द्रकान्ता पाठ्य-कथा है और इसकी बुनावट तो इतनी जटिल या कल्पना इतनी विराट है कि कम ही हिन्दी उपन्यासों की हो।

अद्भुत और अद्वितीय याददाश्त और कल्पना के स्वामी हैं—बाबू देवकीनन्दन खत्री। पहले या तीसरे हिस्से में दी गई एक रहस्यमय गुत्थी का सूत्र उन्हें इक्कीसवें हिस्से में उठाना है, यह उन्हें मालूम है। अपने घटना-स्थलों की पूरी बनावट, दिशाएँ उन्हें हमेशा याद रहती हैं। बीसियों दरवाज़ों, झरोखों, छज्जों, खिड़कियों, सुरंगों, सीढ़ियों...सभी की स्थिति उनके सामने एकदम स्पष्ट है। खत्री जी के नायक-नायिकाओं में ‘शास्त्रसम्मत’ आदर्श प्यार तो भरपूर है ही।

कितने प्रतीकात्मक लगते हैं ‘चन्द्रकान्ता’ के मठों-मन्दिरों के खँडहर और सुनसान, अँधेरी, ख़ौफ़नाक रातें।—ऊपर से शान्त, सुनसान और उजाड़-निर्जन, मगर सब कुछ भयानक जालसाज हरकतों से भरा...हर पल काले और सफ़ेद की छीना-झपटी, आँख-मिचौनी।

खत्री जी के ये सारे तिलिस्मी चमत्कार, ये आदर्शवादी परम नीतिवान, न्यायप्रिय सत्यनिष्ठावान राजा और राजकुमार, परियों जैसी ख़ूबसूरत और अबला नारियाँ या बिजली की फुर्ती से ज़मीन-आसमान एक कर डालनेवाले ऐयार सब एक ख़ूबसूरत स्वप्न का ही प्रक्षेपण हैं।

‘चन्द्रकान्ता’ को आस्था और विश्वास के युग से तर्क और कार्य-कारण के युग में संक्रमण का दिलचस्प उदाहरण भी माना जा सकता है।

—राजेन्द्र यादव

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 1894
Edition Year 2024, Ed. 3rd
Pages 1544p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 12.5
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Devakinandan Khatri

Author: Devakinandan Khatri

देवकीनन्दन खत्री

जन्म : 18 जून, 1861 (आषाढ़ कृष्ण 7, संवत् 1918)।

जन्म स्थान : मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)।

बाबू देवकीनन्दन खत्री के पिता लाला ईश्वरदास के पुरखे मुल्तान और लाहौर में बसते-उजड़ते हुए काशी आकर बस गए थे। इनकी माता मुज़फ़्फ़रपुर के रईस बाबू जीवनलाल महता की बेटी थीं। पिता अधिकतर ससुराल में ही रहते थे। इसी से इनके बाल्यकाल और किशोरावस्था के अधिसंख्य दिन मुज़फ़्फ़रपुर में ही बीते।

हिन्दी और संस्कृत में प्रारम्भिक शिक्षा भी ननिहाल में हुई। फ़ारसी से स्वाभाविक लगाव था, पर पिता की अनिच्छावश शुरू में उसे नहीं पढ़ सके। इसके बाद 18 वर्ष की अवस्था में, जब गया स्थित टिकारी राज्य से सम्बद्ध अपने पिता के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से हाथ बँटाने लगे तो फ़ारसी और अंग्रेज़ी का भी अध्ययन किया। 24 वर्ष की आयु में व्यवसाय सम्बन्धी उलट-फेर के कारण वापस काशी आ गए और काशी नरेश के कृपापात्र हुए। परिणामतः मुसाहिब बनना तो स्वीकार न किया, लेकिन राजा साहब की बदौलत चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका पा गए। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और वे अनुभव भी मिले जो उनके लेखकीय जीवन में काम आए। वस्तुतः इसी काम ने उनके जीवन की दिशा बदली।

स्वभाव से मस्तमौला, यारबाश क़िस्म के आदमी और शक्ति के उपासक। सैर-सपाटे, पतंगबाजी और शतरंज के बेहद शौकीन। बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखनेवाले। विचित्रता और रोमांच-प्रेमी। अद्भुत स्मरण-शक्ति और उर्वर, कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी।

‘चन्द्रकान्ता’ पहला ही उपन्यास, जो सन् 1888 में प्रकाशित हुआ। सितम्बर, 1898 में लहरी प्रेस की स्थापना की। ‘सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति (छह भाग) के अतिरिक्त देवकीनन्दन खत्री की अन्य रचनाएँ हैं : ‘नरेन्द्र-मोहिनी’, ‘कुसुम कुमारी’, ‘वीरेन्द्र वीर’ या ‘कटोरा-भर ख़ून’, ‘काजल की कोठरी’, ‘गुप्त गोदना’ तथा ‘भूतनाथ’ (प्रथम छह भाग)।

निधन : 1 अगस्त, 1913

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