‘चन्द्रकान्ता’ का प्रकाशन 1888 में हुआ। ‘चन्द्रकान्ता’, ‘सन्तति’, ‘भूतनाथ’—यानी सब मिलाकर एक ही किताब। पिछली पीढ़ियों का शायद ही कोई पढ़ा-बेपढ़ा व्यक्ति होगा जिसने छिपाकर, चुराकर, सुनकर या ख़ुद ही गर्दन ताने आँखें गड़ाए इस किताब को न पढ़ा हो। चन्द्रकान्ता पाठ्य-कथा है और इसकी बुनावट तो इतनी जटिल या कल्पना इतनी विराट है कि कम ही हिन्दी उपन्यासों की हो।
अद्भुत और अद्वितीय याददाश्त और कल्पना के स्वामी हैं—बाबू देवकीनन्दन खत्री। पहले या तीसरे हिस्से में दी गई एक रहस्यमय गुत्थी का सूत्र उन्हें इक्कीसवें हिस्से में उठाना है, यह उन्हें मालूम है। अपने घटना-स्थलों की पूरी बनावट, दिशाएँ उन्हें हमेशा याद रहती हैं। बीसियों दरवाज़ों, झरोखों, छज्जों, खिड़कियों, सुरंगों, सीढ़ियों...सभी की स्थिति उनके सामने एकदम स्पष्ट है। खत्री जी के नायक-नायिकाओं में ‘शास्त्रसम्मत’ आदर्श प्यार तो भरपूर है ही।
कितने प्रतीकात्मक लगते हैं ‘चन्द्रकान्ता’ के मठों-मन्दिरों के खँडहर और सुनसान, अँधेरी, ख़ौफ़नाक रातें।—ऊपर से शान्त, सुनसान और उजाड़-निर्जन, मगर सब कुछ भयानक जालसाज हरकतों से भरा...हर पल काले और सफ़ेद की छीना-झपटी, आँख-मिचौनी।
खत्री जी के ये सारे तिलिस्मी चमत्कार, ये आदर्शवादी परम नीतिवान, न्यायप्रिय सत्यनिष्ठावान राजा और राजकुमार, परियों जैसी ख़ूबसूरत और अबला नारियाँ या बिजली की फुर्ती से ज़मीन-आसमान एक कर डालनेवाले ऐयार सब एक ख़ूबसूरत स्वप्न का ही प्रक्षेपण हैं।
‘चन्द्रकान्ता’ को आस्था और विश्वास के युग से तर्क और कार्य-कारण के युग में संक्रमण का दिलचस्प उदाहरण भी माना जा सकता है।
—राजेन्द्र यादव
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1894 |
Edition Year | 2024, Ed. 3rd |
Pages | 1544p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 12.5 |