Daste-Saba

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‘दस्ते-सबा’ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का दूसरा कविता-संग्रह है, जिसका न सिर्फ़ उनके साहित्य में, बल्कि समूचे प्रगतिशील साहित्य में ऐतिहासिक महत्त्व है। यह जब नवम्बर 1952 में प्रकाशित हुआ था, तब फ़ैज़ रावलपिंडी ‘साज़िश’ मुक़दमे के तहत हैदराबाद सेंट्रल जेल (पाकिस्तान) में बन्द थे।

कॉलेज के दिनों में रोमान से भरपूर फ़ैज़ ने देश-दुनिया की जिन सच्चाइयों का सामना करते हुए ‘ग़मे-जानाँ’ और ‘ग़मे-दौराँ’ को एक ही तजुर्बे के दो पहलू माना था, वे और भी ठेठ सूरत में उनके सामने आ चुकी थीं। लेकिन अब इस तजुर्बे के साथ एक और चीज़ जुड़ चुकी थी—जेल का तजुर्बा। फ़ैज़ ने इसका ज़िक्र करते हुए ख़ुद लिखा है—‘जेलख़ाना आशिक़ी की तरह ख़ुद एक बुनियादी तजुर्बा है, जिसमें फ़िक्र-ओ-नज़र का एकाध नया दरीचा ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाता है।’ इसलिए इस संग्रह में हम फ़ैज़ के उस जज़्बे को और पुरज़ोर होता देख सकते हैं, जिसे कभी उन्होंने ‘क्यों न जहाँ का ग़म अपना लें’ कहकर दिखाया था। साथ ही अपने उसूलों के लिए लड़ने का फौलादी इरादा भी कि ‘मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है।’

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Language Hindi
Format Paper Back
Publication Year 2023
Edition Year 2023, Ed. 1st
Pages 96p
Translator Abdul Bismillah
Editor Abdul Bismillah
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 21 X 13.5 X 1.5
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Faiz Ahmed 'Faiz'

Author: Faiz Ahmed 'Faiz'

फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

जन्म : 1911, गाँव काला कादर, सियालकोट।

शिक्षा : आरम्भिक धार्मिक शिक्षा मौलवी मुहम्मद इब्राहिम मीर सियालकोटी से प्राप्त की। मैट्रिक स्कॉच मिशन स्कूल और स्नातकोत्तर मुरे कॉलेज, सियालकोट से। वामपंथी विचारधारा के जुझारू पैरोकार फ़ैज़ ने 1936 में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की एक शाखा पंजाब में आरम्भ की। 1935 में एम.इ.ओ.कॉलेज, अमृतसर और बाद में हेली कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, लाहौर में अध्यापन। 1938-1942 के दौरान उर्दू मासिक 'अदबे लतीफ़' का सम्पादन। कुछ समय तक फ़ैज़ ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भी रहे जहाँ 1944 में उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर पदोन्नत किया गया था। 1947 में सेना से इस्तीफ़ा देने के बाद 'पाकिस्तान टाइम्स' के पहले प्रधान सम्पादक बने। 1959 से 1962 तक पाकिस्तान आर्ट्स काउंसलिंग के सचिव रहे। 1964 में लन्दन से वापस आने के बाद फ़ैज़ कराची में अब्दुल्लाह हारुन कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए। 1951 में फ़ैज़ को रावलपिंडी षड्यंत्र केस में चार साल की जेल भी हुई, जहाँ उन्होंने जीवन की कड़वी सच्चाइयों से सीधा साक्षात्कार किया।

प्रमुख रचनाएँ : ‘नक़्शे-फ़रियादी’ (1941), ‘दस्ते-सबा’ (1953), ‘ज़िन्दाँनामा’ (1956), ‘मीज़ान’ (1956), ‘दस्त तहे-संग’ (1965), ‘सरे-वादी-ए-सीना’ (1971), ‘शामे-शह्रे-याराँ’ (1979), ‘मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर’ (1981), ‘सारे सुख़न हमारे’ (फ़ैज़-संग्रह) लंदन से और ‘नुस्ख़हा-ए-वफ़ा’ (फ़ैज़-संग्रह) पाकिस्तान से, 'पाकिस्तानी कल्चर' (उर्दू और अंग्रेज़ी में; 1984)।

फ़ैज़ की रचनाओं का अंग्रेज़ी, रूसी, बलोची, हिन्‍दी सहित दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

पुरस्कार : ‘लेनिन पीस प्राइज़’, ‘द पीस प्राइज़’ (पाकिस्तानी मानवाधिकार सोसायटी), ‘निगार अवार्ड’, ‘द एविसेना अवार्ड’, ‘निशाने-इम्तियाज़’ (मरणोपरान्‍त)। 1984 में मृत्यु से पहले ‘नोबेल प्राइज़’ के लिए नामांकन हुआ था।

निधन : 20 नवम्बर, 1984 को लाहौर में।

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