Chhako Ki Vapasi

Author: Badiuzzaman
Edition: 2024, Ed. 3rd
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Chhako Ki Vapasi
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मुस्लिम-समाज की संरचना, गठन, जातीय स्मृतियों, आस्था और विश्वास के कुल योग—उसकी समूची आन्तरिकता को सघन कलात्मक रचाव से प्रस्तुत करनेवाले उपन्यासों में से यदि किन्हीं दो या तीन अग्रणी रचनाओं का चुनाव किया जाएगा तो ‘छाको की वापसी’ को उस सूची में रखना ही होगा, इसके बिना वह पूरी नहीं होगी।

छाको एक धुरी है, जिस पर घूम रही है एक भरी-पूरी दुनिया। एक समूची क़ौम की ज़ेहनियत और ज़िन्दगी। बीच में जो विभाजन की रेखा दिखाई देती है, वह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच से होती हुई दोनों देशों के शासकवर्ग और जनता के वर्ग-हितों की भी सुस्पष्ट पहचान कराती है, और अन्तत: मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न में बदल जाती है।

मिट्टी की गन्ध जिस तरह से पूरी कृति में समाई हुई है, उसके आगे देश-प्रेम की भारी-भरकम शब्दावली वाली कितनी ही परिभाषाएँ बेकार हैं। सरहदों और सीमाओं में बँधी नागरिकता का एक प्रति-विमर्श रचते हुए यह उपन्यास ज़िन्दगी और ज़मीन के कहीं गहरे, लगभग शाश्वत रिश्ते की ओर इशारा करता है। यही वह रिश्ता है जो आख़िरकार मानव-सभ्यता के विकास का बीज बनता है।

‘एक चूहे की मौत’ जैसे अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास के लेखक का यह उपन्यास नागरिकता और देश की मौजूदा बहसों के सन्दर्भ में और भी प्रासंगिक हो जाता है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 2022
Edition Year 2024, Ed. 3rd
Pages 176p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 1.5
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Author: Badiuzzaman

सय्यद मोहम्मद ख़्वाजा बदीउज़्ज़माँ

सय्यद मोहम्मद ख़्वाजा बदीउज़्ज़माँ का जन्म 30 सितम्बर, 1928 को बिहार के गया शहर में हुआ। प्रगतिशील लेखक आन्दोलन से जुड़कर उन्होंने उर्दू और फिर हिन्दी साहित्य में क़दम रखा। कम उम्र में पिता का साया सर से उठ गया और ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए वक़्त से पहले नौकरी का सिलसिला शुरू हुआ। उन्होंने हिन्दी और उर्दू में एम.ए. किया और ओडिशा के भद्रक कॉलेज में उर्दू के प्राध्यापक रहे। फिर 1956 में दिल्ली आए और भारत सरकार के राजभाषा विभाग से जुड़ गए। विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उनका उपन्यास ‘छाको की वापसी’ और प्रतीकात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास ‘एक चूहे की मौत’ हिन्दी साहित्य की कालजयी कृतियाँ हैं। ‘अपुरुष’ और ‘छठा तंत्र’ उनके अन्य उल्लेखनीय उपन्यास हैं। एक विशाल कैनवस पर लिखा गया उपन्यास ‘सभापर्व’ उनके गुज़र जाने के बाद सामने आया। ‘अनित्य’, ‘पुल टूटते हुए’ और ‘चौथा ब्राह्मण’ उनके कहानी-संग्रह हैं। बदीउज़्ज़माँ उर्दू, हिन्दी, अंग्रेज़ी और ओड़िया भाषाओं के विद्वान थे और इन भाषाओं के श्रेष्ठ अनुवादक। उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण अनुवाद भी किए हैं। वे उस पीढ़ी के नुमाइन्दे थे जिसने मुल्क, ख़ानदान और रिश्तों को टूटते देखा। उन्होंने अपनी क़लम के माध्यम से इस दुख को ज़ुबान दी। पूरा वक़्त साहित्य को दे सकें इसकी फ़ुर्सत ज़िन्दगी ने नहीं दी। उन्होंने 16 मई, 1986 को इस दुनिया को अलविदा कहा। वे अक्सर जिगर मुरादाबादी का यह शे'र गुनगुनाया करते थे—

जान कर मिन-जुमला--ख़सान--मय-ख़ाना मुझे

मुद्दतों रोया करेंगे जाम ओ पैमाना मुझे।

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