‘विरुद्ध’ उपन्यास का सुप्रसिद्ध कथाकार मृणाल पाण्डे की रचना–यात्रा में ऐतिहासिक महत्त्व है। यह उनका प्रथम उपन्यास है। अभिव्यक्ति की ताज़गी के साथ सरोकारों की स्पष्टता ‘विरुद्ध’ की विशेषता है। मानसिक ऊहापोह का मार्मिक अंकन और यथार्थ का तटस्थ चित्रण करता यह उपन्यास वस्तुत: अस्मिता की खोज का आख्यान है।
रजनी और उदय के मय घटित–अघटित को मृणाल पाण्डे ने कलात्मक सौन्दर्य के साथ सहेजा है। उन्होंने भाषा की अचूक व्यंजनाओं से कई बार रजनी के मनोलोक में भागती परछाइयों को विश्लेषित किया है। एक उदाहरण—
“सूखी मिट्टी के लाल फैलाव के बीच जगह–जगह नीचे छिपी चट्टानों की काली नोकें दीख रही थीं। जाने अँधेरे की वजह से या जंगल की नीरव क्रूरता के कारण, रजनी को लगा जैसे कि उसके चारों तरफ़ उगे वे छोटे, नाटे और गठीले आकार दरख़्त नहीं, बल्कि कुछ जीवन्त उपस्थितियाँ हैं, एक काली हिकारत से दम साधे उसे घूरती हुई। है हिम्मत उसमें कि आगे बढ़ सके। उनके काईदार संशय की दमघोंटू चुप्पी के बीच?”
सुशिक्षित रजनी उच्च वर्ग–बोध के बरक्स किस प्रकार अपने अस्तित्व से संवाद करती है, यह पठनीय है। ‘विरुद्ध’ की आत्मीयता पाठक को अपना सहचर बना लेती है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1977 |
Edition Year | 2013, Ed. 1st |
Pages | 131p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.3 |