घर की बेटी, और फिर उसकी भी बेटी—करेला और नीमचढ़ा की इस स्थिति से गुज़रती अकाल–प्रौढ़ लेकिन संवेदनशील बच्ची की आँखों से देखे संसार के इस चित्रण में हम सभी ख़ुद को कहीं न कहीं पा लेंगे।
ख़ास बतरसिया अन्दाज़ में कहे गए इन क़िस्सों में कहीं कड़वाहट या विद्वेष नहीं है। बेवजह की चाशनी और वर्क़ भी नहीं चढ़ाए गए हैं। चीज़ें जैसी हैं वैसी हाज़िर हैं।
इनकी शैली ऐसी ही है जैसे घर के काम निपटाकर आँगन की धूप में कमर सीधी करती माँ शैतान धूल–भरी बेटी को चपतियाती, धमोके देती, उसकी जूएँ बीनती है। मृणाल पाण्डे की क़लम की संधानी नज़र से कुछ नहीं बच पाता—न कोई प्रसंग, न सम्बन्धों के छद्म। घर के आँगन से क़स्बे के जीवन पर रनिंग कमेंटरी करती बच्ची के साथ–साथ उसके देखने का क्षेत्र भी बढ़ता रहता है और उसके साथ ही सम्बन्धों की परतें भी। अन्त तक मृत्यु की आहट भी सुनाई देती है।
बच्चों की दुनिया में ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन होता है—इसीलिए यह किताब...
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Madhu B. Joshi |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2001 |
Edition Year | 2018, Ed. 2nd |
Pages | 119p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.2 X 1 |