कुछ ही दिन पहले मेरी दो कहानियाँ पढ़कर दो पाठकों के क्रोध–भरे पत्र आए। एक ने लिखा था कि ‘अपने लेखों और अन्य कार्यक्रमों में मैं स्त्री–मुक्ति और आत्मनिर्भरता की बात करती हूँ, जबकि इस कहानी की नायिका की घुटन-भरी—दब्बू ज़िन्दगी हमें कोई ऐसा ‘सन्देश’ नहीं देती।’ दूसरे पाठक ने भी घुमा–फिराकर यही पूछा था कि ‘ठीक है, पात्रों की निजी दुनिया के दबावों और उनके सुख–दु:ख से कहानी हमारा साक्षात्कार तो कराती है, पर यह अन्त में आकर हमें ‘सिखाती’ क्या है ?’ मुझे लगता है कि एक बोझिल हितोपदेशी पाठ्यक्रम की किताबों से ‘साहित्य’ पढ़कर निकले ऐसे पाठक रचनात्मक साहित्य की आत्मा से अपरिचित ही रह आए हैं।
मुझे खेद है, मेरी कहानियाँ इनकी थोथी उपदेश–तृष्णा नहीं बुझा सकतीं। हर कहानी या उपन्यास घटनाओं–पात्रों के ज़रिए सत्य से एक आंशिक और कुतूहल-भरा साक्षात्कार होता है। साहित्य हमें जीवन जीना सिखाने के बजाय टुकड़ा–टुकड़ा ‘दिखाता’ है, वे तमाम नर्क–स्वर्ग, वे राग–विराग, वे सारे उदारता और संकीर्णता–भरे मोड़, जिनका सम्मिलित नाम मानव–जीवन है।
जो साहित्य उघाड़ता है, वह अन्तिम सत्य या सार्वभौम आदर्श नहीं, बहुस्तरीय यथार्थ होता है। हाँ, यदि जीवन में आदर्श या सत्य अनुपस्थित या अवहेलित हैं, तो उस विडम्बना को भी वह जताता जाता है। मेरी तहत साहित्य को रचना, परोक्ष रूप से सत्य से आंशिक साक्षात्कारों की ऐसी ही एक शृंखला पाठकों के लिए तैयार करना होता है, जिसके सहारे एक सहृदय व्यक्ति अपनी चेतना, अपनी संवेदना और अभिव्यक्ति–क्षमता का सहज ही कुछ और विस्तार होता पाए। चिन्तनपरक लेख और रचनात्मक लेखन के बीच का फ़ासला तर्कसंगत ज्ञान और संवेदनात्मक समझ के बीच का फ़ासला है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1990 |
Edition Year | 1990, Ed. 1st |
Pages | 257p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.7 |