सभ्यता और संस्कृति के स्तर पर किसी भी समुदाय की जीवनीशक्ति मूलत: उस समुदाय के दार्शनिक चिन्तन में निहित होती है। जिज्ञासा इस चिन्तन का बीज है और कल्पना उसके अँखुआने के लिए आवश्यक जल। इस तरह जो यात्रा आरम्भ होती है वह दर्शन के दायरे में तब प्रवेश करती है जब कल्पना और कल्पनाशक्ति से आगे बुद्धि और विवेक प्रधान हो जाते हैं, तब अज्ञात की गुत्थी खोलने में अलौकिक माध्यमों का परित्याग कर दिया जाता है और अनुभव को तथ्यों की जाँच और व्याख्या का आधार बनाया जाता है। इस मामले में आदिवासी समुदाय भी अपवाद नहीं है। लेकिन दर्शन सम्बन्धी विचार-विमर्शों में आदिवासी समुदायों का सन्दर्भ अब तक प्राय: अनुपस्थित रहा है, जबकि पृथ्वी के प्राचीनतम बाशिन्दों के रूप में वे आदि जिज्ञासु और आदि चिन्तक रहे हैं। उनकी एक सुचिन्तित दर्शन-परम्परा है, जो उनके धर्म—जिन्हें आदि धर्म, सनातन धर्म, गोंडी धर्म, पूयेम धर्म जैसी कई संज्ञाओं से जाना जाता है—सम्बन्धी धारणाओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यह जरूर है कि इतर समुदायों के विपरीत आदिवासी समुदायों का दार्शनिक चिन्तन वाचिक रूप में ही रहा है।
यह हिन्दी में किंचित पहली पुस्तक है जिसमें आदिवासी दर्शन के बुनियादी तत्त्वों का परिचय और विवेचन प्रस्तुत किया गया है। भारत के विभिन्न भागों-अनेक आदिवासी समुदायों के दर्शन-चिन्तन, सृष्टि-कथा, तत्त्व मीमांसा, सत्ता-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा आदि विषयक विचारोत्तेजक सामग्री इस पुस्तक में संकलित की गई है। इसकी एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें आदिवासी दर्शन को प्रस्तुत करने वाले विद्धानों में गैर आदिवासी और विदेशी विद्वान भी शामिल हैं जिनके अनुभव, अध्ययन और चिन्तन-मनन ने इस विषय को व्यापकता प्रदान की है।
संक्षेप में, इतर समुदायों की तरह मनुष्य या ईश्वर केन्द्रित न होकर प्रकृति केन्द्रित आदिवासी दार्शनिक चिन्तन के विविध पहलुओं को सामने लाने वाली यह कृति निश्चय ही पाठक को एक नई दृष्टि प्रदान करेगी।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2024 |
Edition Year | 2024, Ed. 1st |
Pages | 392p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 3 |