हिन्दी कहानियों की दुनिया में नए प्रकार की सामाजिकता का प्रवेश तेज़ी से हो रहा है। समाज के ऐसे-ऐसे अंश साहित्य में अपनी जगह माँग रहे हैं जिनके बारे में कभी चर्चा तक नहीं होती थी। पहले ऐसे अँधेरे कोनों के बारे में कोई रचना आ जाती थी तो उसे अनूठा मान लिया जाता था। आज वैसे गुमनाम कोनों के बारे में लिखनेवालों की तादाद बढ़ी है। और तो और, वे गुमनाम कोने ख़ुद लिखने-बोलने भी लगे हैं। भगवानदास मोरवाल ऐसे अँधेरे बन्द कोनों को रोशन करने और उन्हें जीवन्त बनाने के लिए जाने जाते हैं। हिन्दी कहानी को अपने विरल अनुभवों से समृद्ध करनेवाले नामों में उनका नाम भी अहमियत रखता है।
‘सीढ़ियाँ, माँ और उसका देवता’ की कहानियों की कथा-भूमि में एक ओर जहाँ रति पांडे जैसी भ्रष्ट नेता, अपूर्ण-आलोक जैसे शहरी प्रेमी, कोठी-मालिक न बन पानेवाले मनसुख, जनसम्पर्क प्रबन्धक बासित का नागर संसार है, तो दूसरी ओर ललवामी जैसी शिक्षक, दलित सतवन्ती-लालचन्द, रिक्शाचालक हारून और राम सिंह और अपनी जड़ों से उखड़कर आए विसनाथ जैसों की देहाती दुनिया है। लेकिन ये सनातन-शाश्वत मूल्यों के क्षरण पर विलाप की कहानियाँ नहीं, बल्कि समाज के भीतर समानता और अस्मिता के लिए चल रहे मन्थन की कहानियाँ हैं।
इस संग्रह की पन्द्रह कहानियों में नई भाषा, नए प्रकार के चरित्रों और कथा-स्थितियों की प्रचुरता है। इसीलिए यहाँ अन्तर्वस्तु प्रमुखता पाती है और सजावट उतनी ही है जिससे स्वाभाविकता का हनन न हो।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2008 |
Edition Year | 2008, Ed. 1st |
Pages | 222p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 2 |