Sab Itna Asamapt

Author: Kunwar Narain
Edition: 2018, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Sab Itna Asamapt
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‘सब इतना असमाप्त’ अपने शीर्षक से ही संग्रह की अन्तर्वस्तु का आभास देता है। इसकी अधिकांश कविताएँ वर्ष 2010 के बाद लिखी गई हैं। यहाँ कुछ अन्य काव्य-प्रयोग भी शामिल हैं जो कविता और उसकी एक बड़ी दुनिया में कवि की निरन्तर आवाजाही के प्रमाण हैं। कुँवर नारायण ने किसी भी क़ीमत पर कविता की भूमिका को सीमित करके नहीं देखा। उन्होंने अपनी एक कविता में प्रतीकात्मक लहजे़ में कहा है कि मैं कभी भी अपनी कविताओं का अन्त नहीं लाना चाहता। उस जीवन्त नाते को बनाए रखना चाहता हूँ जिसे अन्त समाप्त कर देता है। वे हमेशा अनन्तिम कविताएँ लिखना चाहते थे, इसलिए अन्तहीन भी। प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ अपने आप में उनकी इस चिन्ता को मूर्त करती हैं और इस तरह अन्त और आरम्भ की एक व्यापक और परस्पर अभिन्न परिकल्पना हमारे सामने रखती हैं।

संग्रह की कविताएँ बहुत अनोखे ढंग से बेचैन करती हैं और आश्वस्त भी। इनमें एक बड़े कवि के समस्त अनुभवों की काव्यात्मक फलश्रुति है और अक्सर एक भव्य उदासी का गूँजता हुआ स्वर। यहाँ कुछ भूली-बिसरी यादों का कोलाज है और अप्रत्याशित विडम्बनाओं की ओर लुढ़कते हुए समाज की चिन्ता भी। पूरे संग्रह में सागर के दो तटों की तरह जीवन और मृत्यु के विविध अनुभवों-आहटों की कविताएँ एक सायुज्य में हैं।

हिन्दी के शीर्षस्थ कवि कुँवर नारायण ने अपनी कृतियों के माध्यम से एक पूरा अलग 'पैराडाइम’ रचा है। इसी क्रम में प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ एक नए रूप में उनकी उपस्थिति को सम्भव बनाती हैं। इसमें उनकी काव्य-यात्रा भौतिक-अभौतिक, नैतिक-अनैतिक, लौटना-जाना, अन्त और आरम्भ, जिजीविषा और मुमुक्षा की परस्पर यात्रा रही है। पूरे संग्रह में यह संवेदनशीलता क्रमश: बहुआयामी विस्तार पाती गई है और कुँवर नारायण का एक बेहद सघन और अनुभव-समृद्ध काव्य-संसार पाठकों के सामने खुलता चला जाता है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 2018
Edition Year 2018, Ed. 1st
Pages 107p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1.5
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Kunwar Narain

Author: Kunwar Narain

कुँवर नारायण

कुँवर नारायण (19 सितम्बर, 1927—15 नवम्बर, 2017) ने बीसवीं और इक्कीसवीं सदियों की सन्धि-रेखा के दोनों ओर फैले हुए अपने गुणात्मक लेखन में अध्ययन की व्यापकता, सरोकारों की विविधता और जीवनानुभवों के सौन्दर्य-बोध के कारण कई पीढ़ियों की रचना और जीवन-दृष्टि को निरन्तर समृद्ध किया है। अपनी सिसृक्षा में उनका कवि और सम्पूर्ण कृतित्व एक पूरी पारिस्थितिकी का निर्माण करता है और इसके लिए सदैव अपनी प्रतिबद्धता भी ज़ाहिर करता रहा है। उनके जीवन और कविताओं में परस्पर साहचर्य के अन्तर्निहित भाव को आद्यन्त लक्षित किया जा सकता है जो आज भी उनकी उपस्थिति को सम्भव और मूर्त करता है।

प्रकाशित कृतियाँ : ‘चक्रव्यूह’, ‘तीसरा सप्तक’ (सहयोगी कवि), ‘परिवेश : हम-तुम’, ‘अपने सामने’, ‘कोई दूसरा नहीं’, ‘इन दिनों’, ‘हाशिए का गवाह’, ‘सब इतना असमाप्‍त’ (कविता); ‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’, ‘कुमारजीव’ (प्रबन्ध-काव्य); ‘आकारों के आसपास’, ‘बेचैन पत्तों का कोरस’ (कहानी); ‘आज और आज से पहले’, ‘साहित्य के कुछ अन्तर्विषयक सन्दर्भ’, ‘दिशाओं का खुला आकाश’, ‘शब्द और देशकाल’, ‘रुख़’ (आलोचना व वैचारिक गद्य); ‘लेखक का सिनेमा’ (विश्व सिने-समीक्षा); ‘मेरे साक्षात्कार’, ‘तट पर हूँ पर तटस्थ नहीं’ (साक्षात्कार); ‘न सीमाएँ न दूरियाँ’ (अनुवाद)। अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में रचनाओं के पुस्तकाकार अनुवाद और संचयन, उन पर केन्द्रित शोध और आलोचनात्मक लेखन।

प्रमुख सम्मान : ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘शलाका सम्मान’, ‘राष्ट्रीय कबीर सम्मान’, रोम का अन्तरराष्ट्रीय 'प्रीमिओ फ़ेरोनिआ’, वॉरसॉ यूनिवर्सिटी का ‘ऑनरेरी मैडल’, 'पद्मभूषण’, साहित्य अकादेमी की 'महत्तर सदस्यता’ आदि।

 

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