Nirala-Hard Cover

Author: Ramvilas Sharma
Special Price ₹505.75 Regular Price ₹595.00
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ISBN:9788171192854
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9788171192854
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हिन्दी साहित्य में ‘निराला’ के योगदान को रेखांकित करने में
डॉ. रामविलास शर्मा ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। यह पुस्तक उस भूमिका का पहला अध्याय है।

सन् 1949 में यह पहली बार छपी थी, तब तक सामाजिक यथार्थ के साथ निराला के रचनात्मक रिश्ते को समग्रता से नहीं समझा गया था। इस पुस्तक ने तब उस दिशा में महत्त्वपूर्ण काम किया। इसने ‘निराला साहित्य’ के मूल्यांकन की नई कसौटियाँ खोजीं। पिछले पचास सालों में डॉ. शर्मा द्वारा निर्धारित इन कसौटियों के इर्द-गिर्द ही निराला साहित्य का अधिकांश विवेचन-विश्लेषण होता रहा है। कहा जा सकता है कि स्वयं रामविलास शर्मा की कालजयी पुस्तक ‘निराला की साहित्य साधना’ की आधारभूमि भी यह पुस्तक है।

इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह महज़ ‘साहित्यिक दुनिया’ के लिए नहीं लिखी गई है, बल्कि रामविलास जी के ही शब्दों में, ‘इस पुस्तक को लिखने का मूल उद्देश्य यह रहा है कि साधारण पाठकों तक निराला साहित्य पहुँचे, दुरुहता की जो दीवार खड़ी करके विद्वानों ने निराला को उनके पाठकों से दूर रखने का प्रयास किया था, वह दीवार ढह जाए, इस उद्देश्य को ध्यान में रखने से पाठक अधिक सहानुभूति के साथ यह पुस्तक पढ़ सकेंगे।’

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 1991
Edition Year 2023, Ed. 9th
Pages 200p
Price ₹595.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 21.5 X 14.5 X 1.5
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Ramvilas Sharma

Author: Ramvilas Sharma

रामविलास शर्मा

जन्म : 10 अक्टूबर, 1912; ग्राम—ऊँचगाँव सानी, ज़िला—उन्नाव (उत्तर प्रदेश)।

शिक्षा : 1932 में बी.ए., 1934 में एम.ए. (अंग्रेज़ी), 1938 में पीएच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय)।

लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक आगरा के बलवन्त राजपूत कॉलेज में अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया।

सन् 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री रहे।

देशभक्ति तथा मार्क्‍सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केन्द्र-बिन्दु हैं। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी-आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।

सम्मान : ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ तथा हिन्दी अकादेमी, दिल्ली का ‘शताब्दी सम्मान’।

निधन : 30 मई, 2000

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