Bharatendu Yug Aur Hindi Bhasha Ki Vikas Parampara

Author: Ramvilas Sharma
Edition: 2023, Ed. 8th
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Bharatendu Yug Aur Hindi Bhasha Ki Vikas Parampara

भारतेन्दु युग हिन्दी साहित्य का सबसे जीवन्त युग रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक हर मुद्दे पर तत्कालीन रचनाकारों ने ध्यान दिया और अपना अभिमत व्यक्त किया, जिसमें उनकी राष्ट्रीय और जनवादी दृष्टि का उन्मेष है। वे साहित्यकार अपने देश की मिट्टी से, अपनी जनता से, उस जनता की आशा-आकांक्षाओं से जुड़े हुए थे, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनकी रचनाएँ हैं। लेकिन उनकी, उनके युग की इस भूमिका को सही परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने का प्रयास पहली बार डॉ. रामविलास शर्मा ने ही किया। वे ही हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भारतेन्दु-युग में रचे गए साहित्य के जनवादी स्वर को पहचाना और उसका सन्तुलित वैज्ञानिक मूल्यांकन किया।

प्रस्तुत पुस्तक इसीलिए ऐतिहासिक महत्त्व की है कि उसमें भारतेन्दु-युग की सांस्कृतिक विरासत को, उसके जनवादी रूप को पहली बार रेखांकित किया गया है। लेकिन पुस्तक में जैसे एक ओर उस युग में रचे गए साहित्य की मूल प्रेरणाओं और प्रवृत्तियों का विवेचन है, वैसे ही दूसरी ओर प्रायः तीन शताब्दियों के भाषा-सम्बन्धी विकास की रूपरेखा भी प्रस्तुत है, जो डॉ. शर्मा के भाषा-सम्बन्धी गहन अध्ययन का परिणाम है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 1975
Edition Year 2023, Ed. 8th
Pages 376p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 3
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Ramvilas Sharma

Author: Ramvilas Sharma

रामविलास शर्मा

जन्म : 10 अक्टूबर, 1912; ग्राम—ऊँचगाँव सानी, ज़िला—उन्नाव (उत्तर प्रदेश)।

शिक्षा : 1932 में बी.ए., 1934 में एम.ए. (अंग्रेज़ी), 1938 में पीएच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय)।

लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक आगरा के बलवन्त राजपूत कॉलेज में अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया।

सन् 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री रहे।

देशभक्ति तथा मार्क्‍सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केन्द्र-बिन्दु हैं। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी-आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।

सम्मान : ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ तथा हिन्दी अकादेमी, दिल्ली का ‘शताब्दी सम्मान’।

निधन : 30 मई, 2000

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