परम्परा और प्रयोग की सन्धि पर खड़ी प्रियदर्शन की कविता जितना अपने समय और समाज से बनती है, उतना ही निजी अनुभव-संसार से। इस कविता पर समकालीन सन्दर्भों की छाप और छायाएँ हैं लेकिन उनका नितान्त निजी और मौलिक भाष्य है।
प्रियदर्शन हिन्दी कविता के आमफ़हम मुहावरों और जानी-पहचानी वैचारिक सरणियों से अलग रचना का एक ऐसा संसार बनाते हैं जिसमें कविता किसी विचार या सरोकार को उसकी सम्पूर्णता में पकड़ने और पढ़ने का माध्यम बन जाती है।
उनकी कविता में कई चमकती हुई पंक्तियाँ आती हैं, लेकिन कविता इन पंक्तियों तक ख़त्म नहीं हो जाती, वह इन रौशन इलाक़ों से आगे उन अँधेरे हिस्सों तक भी जाती है जहाँ आम तौर पर बाक़ी लोगों की नज़र नहीं पड़ती। सन्दर्भ-बहुलता और सरोकार-गहनता उनकी कविता में सहज लक्ष्य किए जा सकने लायक़ गुण हैं। जो चीज़ उन्हें विशिष्ट बनाती है, वह उनका इतिहास और समयबोध है। वे शब्दों के जाने-पहचाने आशयों को, इतिहास और मिथक के परिचित नायकों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करते, उन्हें अपनी आँख से देखते हैं, अपने पैमानों पर कसते हैं।
सबसे अच्छी बात यह है कि विचार और सरोकार से बने इस बीहड़ में मनोयोगपूर्वक दाख़िल होते हुए भी वे एक पल के लिए भी कविता को अपनी निगाह से ओझल नहीं होने देते। अन्ततः पाठक को जो मिलता है, वह एक नया आस्वाद है, नई समझ है और नई कविता है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2012 |
Edition Year | 2012, Ed. 1st |
Pages | 136p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |