हिन्दी साहित्य में जिस रचना पीढ़ी को साठोत्तरी पीढ़ी कहा जाता है, सूर्यबाला उसकी प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी लेखकीय पहचान के केन्द्र में उनका पहला उपन्यास ‘मेरे संधि-पत्र’ है। उपन्यास का प्रकाशन सत्तर के दशक के मध्य में प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में हुआ था। उपन्यास की कथा के केन्द्र में ‘शिवा’ नामक स्त्री का किरदार है जो अपने समय की नारी का प्रतिनिधित्व करती है और नारी-जीवन को लेकर उठनेवाले सतत सवालों की चुनौती को स्वीकार करती है। वह मध्यवर्गीय शिक्षित स्त्री है और उपन्यास में उसके कई रूप दिखाई देते हैं। वह आत्मविश्वास से भरपूर है, स्वाभिमानी है। अपनी पहचान को लेकर सजग है लेकिन विद्रोह नहीं करती है, न ही अपने आपको परिस्थितियों का दास बन जाने देती है; बल्कि अपने विवेक से ऐसे निर्णय लेती है जो उसके, परिवार और समाज के हित में हों। यही उसके संधि-पत्र हैं।
‘मेरे संधि-पत्र’ के केन्द्र में मध्यवर्गीय स्त्री के मन के द्वन्द्व हैं, निर्णय-अनिर्णय की स्थितियाँ हैं, इसमें स्त्री का शोषण नहीं है, बल्कि उसको बेपनाह प्यार करनेवाला पति है और उसके सौतेले बच्चे। समाज, परिवार, मान-मर्यादा को लेकर उपन्यास में जो सवाल उठाए गए हैं, वे आज भी स्त्री-विमर्श के लिए गौण मुद्दे नहीं हैं। उपन्यास में यह बात तो है कि स्त्री ऐसे पुरुष के सामने ही समर्पण कर पाती जो बौद्धिक रूप से उससे श्रेष्ठ हो, लेकिन उपन्यास की नायिका अन्त में सामाजिकता का वरण करती है। मुखर स्त्री-विमर्श के दौर में मितकथन वाला यह उपन्यास अपने प्रश्नों के कारण समकालीन लगने लगता है।