...और कई प्रमाणों की तरह अस्त्राखान के हिन्दू व्यापारी भी उस वास्तविकता के प्रमाण हैं, जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत ही नहीं महसूस की जाती। वे ऐसे पात्र हैं जो सैकड़ों सालों से अपने लिए लेखक तलाश रहे हैं। वे हिन्दी सराय में बुला रहे हैं, कोई जाने को तैयार नहीं। अस्त्राखान की हिन्दी सराय की ये आवाज़ें, यों तो काफ़ी पहले से सुनता रहा था, धुँधली सी यादें बनी हुई थीं। ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ के अलावा, राहुल जी के ‘मध्य एशिया के इतिहास' में भी अस्त्राखान के व्यापारियों के भारत-सम्पर्क का उल्लेख है। ‘अकथ कहानी प्रेम की' लिखने के दौरान इन आवाज़ों की धुँधली यादें तो ताज़ा हो ही गईं, कुछ और आवाज़ें भी सुनाई देने लगीं। भारत के साथ-साथ अन्य सभ्यताओं के इतिहासों से भी आती हैं ऐसी आवाज़ें, जिन्हें औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि के अन्धविश्वास दबाते रहे हैं। ऐसी आवाज़ें मुझे बुलाती रहती हैं, कभी मेक्सिको तो कभी अस्त्राखान।
इन्हीं आवाज़ों को सुनने की उत्सुकता ने, अस्त्राखान में हिन्दी-सराय बनानेवाले, वोल्गा किनारे के तातार-बाज़ार में अपने मकानों और मक़ामों के अब तक दिखनेवाले निशान छोड़ जानेवाले मुलतानियों, मारवाड़ियों, सिन्धियों, गुजरातियों से बात करने की बेचैनी ने ही कराया, मेरा यह सफ़र हिन्दी सराय अस्त्राखान वाया येरेवान का...
—इसी पुस्तक से।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2013 |
Edition Year | 2013, Ed. 1st |
Pages | 131p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 15 X 1.5 |