अजय सोडानी की किताब 'दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ इस अर्थ में अनूठी है कि यह दुर्गम हिमालय का सिर्फ़ एक यात्रा-वृत्तान्त भर नहीं है, बल्कि यह जीवन-मृत्यु के बड़े सवालों से जूझते हुए वाचिक और पौराणिक इतिहास की भी एक यात्रा है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए बार-बार लेखक और उनकी सहधर्मिणी अपर्णा के जीवट और साहस पर आश्चर्य होता है। अव्वल तो मानसून के मौसम में कोई सामान्य पर्यटक इस दुर्गम इलाक़े की यात्रा करता नहीं, करता भी है तो उसके बचने की सम्भावना कम ही होती है। ऐसे मौसम में ख़ुद पहाड़ी लोग भी इन स्थानों को प्रायः छोड़ देते हैं। लेकिन किसी ठेठ यायावर की वह यात्रा भी क्या जिसमें जोखिम न हो। इस लिहाज़ से देखें तो यह यात्रा-वृत्तान्त दाँतों तले उँगली दबाने पर मजबूर करनेवाला है। यात्रा में संकट कम नहीं है। भूकम्प आता है, ग्लेशियर दरक उठते हैं। कई बार तो स्थानीय सहयोगी भी हताश हो जाते हैं और इसके लिए लेखक की नास्तिकता को दोष देते हैं। फिर भी यह यात्रा न केवल स्थानीय जन-जीवन के कई दुर्लभ चित्र सामने लाती है, बल्कि हज़ारों फीट ऊँचाई पर खिलनेवाले ब्रह्मकमल, नीलकमल और फेनकमल जैसे दुर्लभ फूलों के भी साक्षात् दर्शन करा देती है। लेखक बार-बार पौराणिक इतिहास में जाता है और पांडवों के स्वर्गारोहण के मार्ग के चिह्न खोजता फिरता है। श्रुति-इतिहास से मेल बिठाते हुए पांडवों का ही नहीं, कौरवों का भी इतिहास जोड़ता चलता है। इस बारे में लेखक का अपना अलग ही दृष्टिकोण है। वह ‘महाभारत’ को इतिहास नहीं मानता, लेकिन यह भी नहीं मान पाता कि उसमें सब कुछ कपोल कल्पना है। इस अर्थ में देखें तो यह किताब इतिहास का भी यात्रा-वृत्तान्त है। आश्चर्य नहीं कि रवानी और मौज सिर्फ़ लेखक के योजना-निर्माण में ही नहीं, बल्कि इस वृत्तान्त की भाषा में भी है जिसे पढ़ने का सुख किसी औपन्यासिक रोमांच से भर देता है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2018 |
Edition Year | 2018, Ed. 1st |
Pages | 220p |
Price | ₹299.00 |
Publisher | Sarthak (An imprint of Rajkamal Prakashan) |
Dimensions | 22 X 14.5 X 2 |