संस्कृति की लीक पर उल्टा चलूँ तो शायद वहाँ पहुँच सकूँ, जहाँ भारतीय जनस्मृतियाँ नालबद्ध हैं। वांछित लीक के दरस हुए दन्तकथाओं तथा पुराकथाओं में और आगाज़ हुआ हिमालय में घुमक्कड़ी का। स्मृतियों की पुकार ऐसी ही होती है। नि:शब्द। बस एक अदृश्य-अबूझ खेंच, अनिर्वचनीय कर्षण। और चल पड़ता है यायावर वशीभूत...दीठबन्द...। जगहों की पुकार गूगल गुरु की पहुँच से परे। गूगल मैप के अनुगमन से रास्ते तय होते हैं, जगहें मिलती हैं पर क्या उनसे राबता हो पाता है? जब चित्त संघर्ष, त्याग, आत्मा का अनुगामी हो जाए तब हासिल होती है आलम-ए-बेख़ुदी। जाग्रत होती हैं सुषुप्त स्मृतियाँ। खेंचने लगती हैं जगहें। घटित होता है असल रमण। अगस्त दो हज़ार दस में, ऐसी ही आलम-ए-बेख़ुदी में, हम पहुँचे थे हिमालय में—सरस्वती नदी के उद्गम स्थल पर। परन्तु आन्तरिक जगत में चपल चित्त अधिक ठहर थोड़े ही सकता है, सो बेख़ुदी के वे आलम भी अल्पकालिक ही होते हैं। इस वर्ष भी वही हुआ। हिमालय की ना-नुकुर से आजिज़ आ, हमने चम्बल के बीहड़ों में जाने का मन बनाया। जानकारियाँ जुट गईं, तैयारियाँ मुकम्मल हुईं। किन्तु घर से निकलने के ठीक पहले अनदेखे ‘रन’ का धुँधला-सा अक्स ज़ेहन में उभरा और मैं वशीभूत-सा चल दिया गुजरात की ओर। किसे ख़बर थी कि यह दिशा परिवर्तन अप्रत्याशित नहीं वरन् सरस्वती नदी की पुकार के चलते है, कि यह असल में ‘धूमधारकांडी’ अभियान की अनुपूरक यात्रा ही है। तो साहेब लोगो, आगे के सफहों पर दर्ज हर हर्फ दरअसल गवाह है उस परानुभूति का जिसके असर में मुझे शब्दों में मंज़र और मंज़रों में शब्द नज़र आए। या यूँ कहूँ कि प्रचलित किसी शब्द में इतिहास या परिपाटी में समूचा कालखंड अनुभूत हुआ यानी कि यह किताब यायावरी का ‘डबल डोज़’ है।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Publication Year | 2019 |
Edition Year | 2019, Ed. 1st |
Pages | 278p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Sarthak (An imprint of Rajkamal Prakashan) |
Dimensions | 22 X 14.5 X 2 |