‘बिना दीवारों के घर’ का जो घर है उसकी दीवारें हैं, लेकिन लगभग ‘न-हुईं’ सी ही। एक स्त्री के ‘अपने’ व्यक्तित्व की आँच वे नहीं सँभाल पातीं, और पुरुष, जिसको परम्परा ने घर का रक्षक, घर का स्थपति नियुक्त किया है, वह उन पिघलती दीवारों के सामने पूरी तरह असहाय! यह समझ पाने में क़तई अक्षम कि पत्नी की परिभाषित भूमिका से बाहर खिल और खुल रही इस स्त्री से क्या सम्बन्ध बने! कैसा व्यवहार किया जाए! और यह सारा असमंजस, सारी दुविधा और असुरक्षा एक निराधार सन्देह के रूप में फूट पड़ती है। आत्म और परपीड़न का एक अनन्त दुश्चक्र, जिसमें घर की दीवारें अन्ततः भहरा जाती हैं।
स्त्री-स्वातंत्र्य के संक्रमण काल का यह नाटक ख़ास तौर पर पुरुष को सम्बोधित है और उससे एक सतत सावधानी की माँग करता है कि बदलते हुए परिदृश्य से बौरा कर वह किसी विनाशकारी संभ्रम का शिकार न हो जाए, जैसे कि इस नाटक का ‘अजित’ होता है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1966 |
Edition Year | 2024, Ed. 7th |
Pages | 100p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 1 |