Ramvilas Sharma Ke Patra

Author: Ramvilas Sharma
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Ramvilas Sharma Ke Patra
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लेखकों और कलाकारों के पत्रों में एक विशेष क़िस्म की ऊष्मा होती है। कारण कि वे अपने समय को न सिर्फ़ गहराई से देखते हैं, बल्कि उस पर एक विशेष नज़रिये से विचार भी करते हैं। इस पुस्तक में रामविलास शर्मा द्वारा लिखे गए पत्रों को खोजकर संकलित किया गया है।
रामविलास जी हिन्दी आलोचना के बड़े स्तम्‍भ रहे हैं, और आज भी हैं। उन्होंने भाषा तथा साहित्य पर विपुल लेखन किया। इन पत्रों में हमें उनका एक अलग और बहुत आत्मीय रूप दिखाई देता है। उनके पत्रों को लेकर कुछ पुस्तकें पहले भी प्रकाशित हो चुकी हैं लेकिन उनमें उनके लिखे पत्र कम ही हैं। उन्हें लिखे गए पत्रों की संख्या ज़्यादा है। उनके लिखे पत्रों को एक ज़िल्द में उपलब्ध कराने की मंशा ही इस पुस्तक की वजह बनी।
इन पत्रों को प्राप्त करने के लिए सम्बन्धित लोगों से पत्र-व्यवहार से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं में विज्ञापन तक दिए गए। इसके अलावा भी हर सम्भावित व्यक्ति से सम्पर्क किया गया, तब जाकर यह सामग्री एकत्र हो पाई।
इन पत्रों में रामविलास जी की सहज संवेदना तो दिखाई देती ही है, पत्र पाने वालों की दैनन्दिन समस्याओं के प्रति गम्भीर सहानुभूति भी दृष्टिगोचर होती है। रामविलास जी की साहित्येतर रुचियों की जानकारी भी हमें इनसे मिलती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह एक दस्तावेज़ी और संग्रहणीय पुस्तक है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2021
Edition Year 2021, Ed. 1st
Pages 574p
Translator Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 4
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Ramvilas Sharma

Author: Ramvilas Sharma

रामविलास शर्मा

जन्म : 10 अक्टूबर, 1912; ग्राम—ऊँचगाँव सानी, ज़िला—उन्नाव (उत्तर प्रदेश)।

शिक्षा : 1932 में बी.ए., 1934 में एम.ए. (अंग्रेज़ी), 1938 में पीएच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय)।

लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक आगरा के बलवन्त राजपूत कॉलेज में अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया।

सन् 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री रहे।

देशभक्ति तथा मार्क्‍सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केन्द्र-बिन्दु हैं। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी-आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।

सम्मान : ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ तथा हिन्दी अकादेमी, दिल्ली का ‘शताब्दी सम्मान’।

निधन : 30 मई, 2000

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