‘श्रीरामचरितमानस’ लीलान्वयी काव्य है। इनकी मान्यताएँ वाल्मीकि रामायण से न जुड़कर भागवत पुराण से जुड़ती हैं। वाल्मीकि अपनी ‘रामायण’ के ‘लंकाकांड’ में ‘रावण वध’ की समापन कथा कहते हैं, किन्तु तुलसीकृत मानस का ‘लंकाकांड’ रावण का मुक्ति का आख्यान है।
प्रभु के प्रति द्वेष भी भक्ति ही है और उस अमर्ष भाव में आकंठ डूबे रावण जैसे व्यक्तित्व के प्रति श्रीराम का क्रोध उनकी कृपा तथा अनुग्रह है। इसलिए तुलसीदासकृत लंकाकांड को कथा समापन के रूप में नहीं लेना चाहिए, वरन् मध्यकालीन लीलाभक्ति की उस अवधारणा से जोड़कर देखना चाहिए, जहाँ शत्रु-मित्र, साधु-असाधु, राक्षस-मानव के बीच स्थिर दीवार को तोड़कर सभी को एक मंच पर बैठाने की तत्परता दिखाई पड़ती है। हिन्दू-अहिन्दू को एक तार से जोड़नेवाली यह भक्ति निश्चित ही भारतीय संस्कृति की विषमता के युग में एक बहुत बड़ी सम्बल थी।
तुलसी अपने इस ‘लंकाकांड’ में ‘रावण वध’ की कथा न कहकर राम एवं रावण के बीच रागात्मक ऐक्य की स्थापना की कथा कहते हैं। रावण के भौतिक शरीर को विनष्ट करके उसकी तेजोमयी चेतना का श्रीराम के शरीर में विलयन भक्ति द्वारा स्थापित रागात्मक समन्वय का सबसे बड़ा साक्ष्य है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2006 |
Edition Year | 2012, Ed. 2nd |
Pages | 192p |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1 |