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Shekhar Ek Jeevani : Vol. 2-Hard Cover

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‘शेखर : एक जीवनी’ को कुछ वैचारिक हलक़ों में आत्म-तत्त्व के बाहुल्य के कारण आलोचना का शिकार होना पड़ा था। साथ ही अपने समय के नैतिक मूल्यों के लिए भी इसे चुनौती की तरह देखा गया था। लेकिन आत्म के प्रति अपने आग्रह के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि ‘शेखर’ समाज से विलग, या उसके विरोध में खड़ा हुआ कोई व्यक्ति है। अगर ऐसा होता तो शेखर अपने समय-समाज के ऐसे-ऐसे प्रश्नों से नहीं जूझता जो उस समय स्वाधीनता आन्दोलन के नेतृत्वकारी विचारकों-चिन्तकों के लिए भी चिन्ता का मुख्य बिन्दु नहीं थे, मसलन—जाति और स्त्री से सम्बन्धित प्रश्न।

जैसा कि स्वयं अज्ञेय ने संकेत किया है, शेखर अपने समय से बनता हुआ पात्र है। वह परिस्थितियों से विकसित होता हुआ और परिस्थितियों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हुआ पात्र है।

उपन्यास के प्रथम भाग में जिस तरह से शेखर का मनोविज्ञान, उसके अन्तस्तल के निर्माण की प्रक्रिया उद्घाटित हुई है, उसी आवेग और सघनता के साथ इस दूसरे भाग में शेखर के वास्तविक जीवनानुभवों का वर्णन किया गया है। कहना न होगा कि 'शेखर एक जीवनी’ की बुनावट में ‘पैशन’ की वैसी ही उच्छल धारा प्रवाहित है जैसी, हमारे जीवन में होती है। अपने औपन्यासिक वितान में ‘शेखर : एक जीवनी’ इसीलिए एक कालजयी कृति के रूप में मान्य है।

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Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2014
Edition Year 2024, Ed. 5th
Pages 256p
Price ₹895.00
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Ajneya'

Author: Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Ajneya'

सच्चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन ‘अज्ञेय’

 

जन्म : 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़‍िले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता।

शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देखरेख में घर पर ही संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। 1929 में बी.एससी. करने के बाद एम.ए. में उन्होंने अंग्रेज़ी विषय रखा; पर क्रान्तिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।

1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। 1936-37 में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे; इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश-विदेश की यात्राएँ कीं। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान साप्ताहिक’, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेज़ी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 1980 में ‘वत्सल निधि’ की स्थापना की।

प्रमुख कृतियाँ : कविता-संग्रह—‘भग्नदूत’, ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम्’, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’, ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, ‘महावृक्ष के नीचे’, ‘नदी की बाँक पर छाया’, ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स’ (अंग्रेज़ी में); कहानी-संग्रह—‘विपथगा’, ‘परम्परा’, ‘कोठरी की बात’, ‘शरणार्थी’, ‘जयदोल’; उपन्यास—‘शेखर : एक जीवनी’ (प्रथम भाग और द्वितीय भाग), ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’; यात्रा वृत्तान्त—‘अरे यायावर रहेगा याद?’, ‘एक बूँद सहसा उछली’; निबन्ध-संग्रह—‘सबरंग’, ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य’, ‘आलवाल’; आलोचना—‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘भवन्ती’, ‘अद्यतन’; संस्मरण—‘स्मृति लेखा’; डायरियाँ—‘भवन्ती’, ‘अन्तरा’ और ‘शाश्वती’; विचार-गद्य—‘संवत्सर’; नाटक—‘उत्तरप्रियदर्शी’; सम्पादित ग्रन्थ—‘तार सप्तक’, ‘दूसरा सप्तक’, ‘तीसरा सप्तक’ (कविता-संग्रह) के साथ कई अन्य पुस्तकों का सम्पादन।

सम्मान : 1964 में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ और 1979 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’।

निधन : 4 अप्रैल, 1987

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