Agyeya Aalochana Sanchayan

Editor: Om Nishchal
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Agyeya Aalochana Sanchayan
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एक आलोचक के रूप में अज्ञेय की स्थापनाओं ने पिछली लगभग पूरी शताब्दी को आन्दोलित किया है। वे अपने समय के अधीत, पश्चिम-पूर्व के लेखन से सुपरिचित लेखकों में थे। उन्होंने विश्व-वैचारिकी को अपने अध्ययन और चिन्तन में ढाला था और उसे भारतीय समाज और साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखा-परखा था। वैश्विक लेखन से सघन रिश्ते के बावजूद उनके लेखे ‘आधुनिकता’ का अर्थ ‘परम्परा’ से मुँह मोड़ना नहीं था। वे यदि अपने चिन्तन की पुष्टि में विदेशी लेखकों को याद करते हैं तो जगह-ब-जगह संस्कृत कवियों और आचार्यों के मतों को भी उतने ही सम्मान से उद्धृत करते हैं। उनकी आलोचना वस्तुतः एक ‘सुविचारित वार्ता’ (थॉटफुल टॉक) है। राजसत्ता और लेखक, राजनीति और साहित्य, परम्परा और आधुनिकता जैसे तमाम मुद्दों पर हिन्दी में बहसें शुरू करने का श्रेय अज्ञेय को ही जाता है। उनकी आलोचना पश्चिम की आलोचना से तुलनीय तो है, मुखापेक्षी नहीं। उन्होंने आलोचना को तार्किक संगति दी और भाषा-संवेदना को नया परिप्रेक्ष्य। कितने ही नए शब्द, नए बिम्ब दिए। प्रतीक, काल और मिथक पर नव्य दृष्टि दी।

अज्ञेय ने आलोचना और चिन्तन को साहित्य के समग्र स्वरूप के अन्वीक्षण के माध्यम के रूप में देखा है। वे आलोचक का एक बड़ा वृत्त बनाते हैं जिसके भीतर उनका कवि-आलोचक-चिन्तक सभ्यता, संस्कृति, सौन्दर्यबोध, भारतीयता, आधुनिकता, स्‍वातंत्र्य, यथार्थ, रूढ़ि और मौलिकता, सम्प्रेषण और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ-साथ काल के निस्सीम व्योम की परिक्रमा करता है। अपनी अवधारणाओं में अविचल, सोच में साफ़ और निर्मल, विरोधों की आँधी में भी निष्कम्प दीये-सी प्रज्ज्वलित अज्ञेय की कवि-छवि जितनी बाँकी और अवेध्य है, उतनी ही सुन्दर वीथियाँ उनके गद्य के अनवगाहित संसार में दृष्टिगत होती हैं।

अज्ञेय की आलोचना का स्वरूप क्लासिक है। वह उच्चादर्शों का अनुसरण करती है और जीवन व साहित्य को समग्रता और समन्विति में देखती है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2012
Edition Year 2012, Ed. 1st
Pages 400p
Translator Not Selected
Editor Om Nishchal
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 3
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Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Ajneya'

Author: Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Ajneya'

सच्चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन ‘अज्ञेय’

 

जन्म : 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़‍िले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता।

शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देखरेख में घर पर ही संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। 1929 में बी.एससी. करने के बाद एम.ए. में उन्होंने अंग्रेज़ी विषय रखा; पर क्रान्तिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।

1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। 1936-37 में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे; इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश-विदेश की यात्राएँ कीं। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान साप्ताहिक’, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेज़ी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 1980 में ‘वत्सल निधि’ की स्थापना की।

प्रमुख कृतियाँ : कविता-संग्रह—‘भग्नदूत’, ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम्’, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’, ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, ‘महावृक्ष के नीचे’, ‘नदी की बाँक पर छाया’, ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स’ (अंग्रेज़ी में); कहानी-संग्रह—‘विपथगा’, ‘परम्परा’, ‘कोठरी की बात’, ‘शरणार्थी’, ‘जयदोल’; उपन्यास—‘शेखर : एक जीवनी’ (प्रथम भाग और द्वितीय भाग), ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’; यात्रा वृत्तान्त—‘अरे यायावर रहेगा याद?’, ‘एक बूँद सहसा उछली’; निबन्ध-संग्रह—‘सबरंग’, ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य’, ‘आलवाल’; आलोचना—‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘भवन्ती’, ‘अद्यतन’; संस्मरण—‘स्मृति लेखा’; डायरियाँ—‘भवन्ती’, ‘अन्तरा’ और ‘शाश्वती’; विचार-गद्य—‘संवत्सर’; नाटक—‘उत्तरप्रियदर्शी’; सम्पादित ग्रन्थ—‘तार सप्तक’, ‘दूसरा सप्तक’, ‘तीसरा सप्तक’ (कविता-संग्रह) के साथ कई अन्य पुस्तकों का सम्पादन।

सम्मान : 1964 में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ और 1979 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’।

निधन : 4 अप्रैल, 1987

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