“अली अमजद से मिलाया था न मैंने तुमको?”
“वह राइटर?”
“हाँ!”
“हाँ-हाँ यार, याद आ गया। बड़ा मज़ेदार आदमी है।”
“उसी का तो चक्कर है।” हरीश ने कहा, “आज ही प्रीमियर है। और वह मर गया। समझ में नहीं आता क्या करूँ?”
“मर कैसे गया?”
“पता नहीं। मैं अभी वहीं जा रहा हूँ।”
आईने में उसने अपने चेहरे को उदास बनाकर देखा। उसे अपना उदास चेहरा अच्छा नहीं लगा। उसने आँखों को और उदास कर लिया...
अली अमजद मरा नहीं, क़त्ल किया गया है। और उसे क़त्ल किया है इस जालिम समाज, बेमुरव्वत हालात और इस बेदर्द फ़िल्म इंडस्ट्री ने...
उसने गरदन झटक दी। बयान का यह स्टाइल उसे अच्छा नहीं लगा।
मेरा दोस्त अली अमजद एक आदमी की तरह जिया और किसी हिन्दी फ़िल्म की तरह बिला वज़ह ख़त्म हो गया।...
दाढ़ी बनाते-बनाते उसने अपना बयान तैयार कर लिया। और इसलिए जब वह अली अमजद के फ़्लैट में दाख़िल हुआ तो वह बिलकुल परेशान नहीं था।
हिन्दी फ़िल्म उद्योग की चमचमाती दुनिया की कुछ स्याह और उदास छवियों को बेपर्दा करता उपन्यास।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1977 |
Edition Year | 2023, Ed. 5th |
Pages | 130p |
Price | ₹495.00 |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 18.5 X 12.5 X 1.5 |