Raidas Bani-Text Book

Author: Shukdev Singh
₹150.00
ISBN:9788171198504
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9788171198504
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‘रैदास-बानी’ का सम्पादन मध्यकालीन साहित्य की ग्रन्थ-विधा की सारी जटिलताओं को समेटते हुए पहली बार किया गया है। यह ग्रन्थावली नहीं ग्रन्थ है। निर्गुण साहित्य को ग्रन्थ करने के लिए ग्रन्थ जैसे—साखी, सबद, रमैनी सबदी, अंगु, उनसठ से चौरासी तक जैसे गुरुदेव को अंग; राग जैसे सोरठ, आसावरी प्राय सोलह, महला, घरु, बीजक, बानी, गुरु ग्रन्थ सर्वंगी, गुणगंजनामा, पद-संग्रह की विधाओं को समझते हुए जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, आमेर, उदयपुर, नागरी प्रचारिणी सभा, साहित्य सम्मेलन, इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी, तमाम जगह के हस्तलेखों और उनके फ़ोटो-चित्रों की सहायता ली गई है। इस क्रम में प्रो. डेविड लोरंजन, पीटर फ़्राइलैंडर, जोजेफ़ सोलर से सहयोग लिया गया है। सबसे सहमति/असहमति लेकिन निष्कर्ष केवल अपने।

रैदास, दादू ग्रन्थों, सर्वंगी पोथियों, बानी, पंचबानी संग्रहों गुरुग्रन्थ यहाँ तक कि सूर पद संग्रह में सात पदों के साथ उपस्थित हैं। कबीर के बराबर। इस सामग्री के साथ रैदासी डेरों में भी उनसे जुड़े पद मिल जाते हैं। पदों की संख्या में हेर-फेर, पंक्तियों को बढ़ाना-घटाना-हटाना लेकिन यह अज्ञान और आलस्य के कारण नहीं, सिद्धान्त और सम्प्रदाय के हठ और मठ के कारण है। इसे समझने के लिए भी एक परम्परा है जो भक्तमालों, जनमसाख, परिचयी गोष्ठी, तिलक, बोध, सागर, नामक सैकड़ों पोथियों में प्राप्त है। इस पुस्तक में इस पूरी परम्परा का समझ-बूझ कर प्रयोग किया गया है।

साखी, सबदी, हरिजस, आरती जैसे रूपों के पीछे दर्शन क्या है? किसी राग में किसी पद के होने का मतलब क्या है? इस विज्ञान को समझे बिना यह सम्पादन सम्भव नहीं था। भक्तमालों और नागरी दासों के पद-प्रसंगों में यह सामग्री मिलती है। इन सबकी छान करते हुए इस पुस्तक की बीन तय की गई है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2003
Edition Year 2018, Ed. 4th
Pages 304p
Price ₹150.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Author: Shukdev Singh

शुकदेव सिंह

कबीर, रैदास, कीनाराम और गोरखनाथ को लेकर सारी दुनिया में अपनी नई व्याख्याओं की हलचल रहे प्रो. शुकदेव सिंह हिन्दी में भी भुवनेश्वर, धूमिल के लिए विख्यात रहे। आलोचना में हमेशा अपनी नई नज़र से किताबी लोगों को बेचैन कर देते। कबीर पर प्रायः सात वर्षों तक अमेरिका, लन्दन, मेक्सिको, दिल्ली, कोलकाता, बनारस, राजस्थान, महाराष्ट्र और बिहार में उन्होंने विचार का मन्थन कराया। एक हज़ार गोष्ठियाँ, आठ-दस लघु फ़िल्में उन्हीं की सहायता से उनके शब्दों को सूँघ-सूँघकर बनीं। उन्होंने दलित साहित्य-मर्मी के रूप में राष्ट्रपति भवन से लेकर विश्वविद्यालयों और चमटोल तक अपना अलख जगाया। आज उनकी छुई-अनछुई कई चमटोलें अम्बेडकर ग्राम के गौरव से मंडित हैं। बनारस जैसे सवर्ण ढाँचे के नगर में अब रैदास स्मारक, घाट, गेट, पार्क, जन्म मन्दिर, संस्थान, अकादमी, रैदास नगर अर्थात् ‘जेता विप्र तेता रैदास’ की स्थिति है।

प्रो. सिंह काशी विश्वनाथ मन्दिर के ट्रस्टी भी थे और रैदास अकादमी के निदेशक भी। उनके अनुवादों के अनुवाद अंग्रेज़ी, इटैलियन, जापानी और रूसी भाषा में भी हैं। उन्होंने मेक्सिको, अमेरिका, लन्दन, जर्मनी की कई यात्राएँ कीं। विश्व मान्यता प्राप्त दुनिया की सभी भाषाओं में भारतीय निर्गुण से सम्बन्धित उनके शिष्य, मित्र, सखा हैं। व्याकरण और साहित्य-पाठ की वे चलती पुस्तक वीथी रहे। उन्होंने कबीरपंथी लीक रमैनी, सबदी, साखी और कबीर वंशी कमाललीक साखी, सबद, रमैनी को ठीक-ठाक चिन्हित करते हुए कबीर के पाठ-सम्पादन का विज्ञान बदल दिया। इस दिशा में अधिकांश कार्य पूरा करके अन्तिम रूप भी दिया। गोरखनाथ को उन्होंने बिलकुल नए ढंग से पढ़ा। मूर्ति मन्दिर और शास्त्र के समानान्तर धर्मकीर्ति को पढ़ते हुए भारतीय समझ को नया रंग देना प्रारम्भ किया। कई झंडे गिरेंगे, कई लहराएँगे और विचारधारा की ऐसी-तैसी के लिए वे लोकायत आजीवक वार्तिककार, सिद्धनाथ, सूफ़ी, जोगी, मलंग और निहंग की समझ को ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, ‘मन ही पूजा मन ही धूप’ से जोड़कर अस्सी प्रतिशत भारतीय जनता का तर्क तैयार कर चुके थे।

निधन : 2007

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