Premraag

हमारे समय में प्रेम उतना संकटग्रस्त नहीं दिखता, जितनी संकटग्रस्त हमारी भाषा में प्रेम-कविता हो गई मालूम पड़ती है। निज संवेदना पर कवि का अनुशासन होते-होते उसकी संवेदना की सामाजिक व्याप्ति तक पहुँच जाता है, और फिर उसे सब तरफ़ सब कुछ दिखाई देता है—भूख-ग़रीबी भी, संघर्ष और यातना भी, देश और राजनीति भी लेकिन इस सबके साथ लगातार मौजूद प्रेम पर उसकी निगाह नहीं पड़ती। इसका सबसे बड़ा नुक़सान यह हुआ कि जीवन की इस दैनिकता के लिए, जिसे प्रेम कहते हैं, हमारी भाषा बहुत महीन और नए औज़ार विकसित नहीं कर पाई। प्रेम कविताओं के नाम पर जो लिखा जाता है, वह बाक़ी हर कविता के मुक़ाबले अपंग जैसा नज़र आता है।
यह संग्रह काफ़ी हद तक इसका अपवाद प्रस्तुत करता है। इसमें संकलित नातिदीर्घ कविताएँ प्रेमानुभव के भिन्न-भिन्न बिन्दुओं को प्रकाशित करती हुई, प्रेम के उस मूल संकल्प को रेखांकित करती चलती है, कि प्रेम हर हाल में गहरे बदलाव का आरम्भ होता है, जिसकी पहली कोंपल की अलग-अलग मुद्राओं के बिम्ब हैं। समर्पण का भाव, प्रेमी के माध्यम से विश्व-रूप का दर्शन और सामाजिक-दैनिक निरन्तरता के रोज़मर्रा प्रवाह में कुछ और होते जाते प्रेमी मन की अलग-अलग ताप की उसाँसें ।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 2017 |
Edition Year | 2017, Ed. 1st |
Pages | 80p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |
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