भारतेन्दु-युग में जैसे नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि विभिन्न साहित्यिक विधाओं का रचनारम्भ हुआ, वैसे ही आलोचना का भी—यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है; लेकिन और भी अधिक महत्त्व इस बात का है कि हिन्दी आलोचना अपने शैशव-काल से ही साहित्य के सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत है।
नंदकिशोर नवल प्रगतिशील दृष्टिसम्पन्न आलोचकों में अग्रगण्य हैं। इस पुस्तक में उन्होंने हिन्दी आलोचना के इतिहास को नहीं, विकास को स्पष्ट किया है।
पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह की आलोचना-दृष्टि का जो समाजशास्त्रीय अध्ययन इस पुस्तक में किया गया है, उससे यह तथ्य साफ तौर पर उभरकर सामने आता है कि हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा प्रगतिशील रही है जिसके निर्माण में इन आलोचकों ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। वस्तुत: इन्हें और इनके अलावा उन्हीं आलोचकों को लेखक ने अपने अध्ययन का विषय बनाया है 'जिनके पास साहित्य के सम्बन्ध में एक सुनिश्चित दृष्टिकोण है, या कम-से-कम जिनमें उसे उपलब्ध करने का प्रयास मिलता है, और जिन्होंने हिन्दी साहित्य का समग्र या आंशिक रूप में आलोचनात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया है।Ó
निश्चय ही यह पुस्तक उस वैचारिक संघर्ष का जीवन्त दस्तावेज है, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य में जनवादी मूल्यों के लिए होता रहा है और जिसे आज के साहित्य-संदर्भ में जानना-समझना निहायत जरूरी है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1981 |
Edition Year | 2023, Ed. 9th |
Pages | 380p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 2 |