मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और गजानन माधव मुक्तिबोध खड़ीबोली के तीन महान कवि हैं। इनमें गुप्तजी की स्थिति विशिष्ट है। वे एक तरह से खड़ीबोली के आदि कवि हैं, जिसने कविता में एक साथ तीन महार्घ उपलब्धियाँ कीं; वे हैं—कविता में नए भाषिक माध्यम का प्रयोग, उसे व्यापक स्वीकृति दिलाना और उसमें अत्यंत श्रेष्ठ काव्य का सृजन करना। कुछ विद्वान् आधुनिक हिंदी कविता में उनके महत्त्व को स्वीकार करते हैं, लेकिन उसे सिर्फ ‘ऐतिहासिक’ कहकर रह जाते हैं, साहित्यिक नहीं मानते। ज्ञातव्य है कि साहित्य में ‘ऐतिहासिक’ महत्त्व जैसी कोई चीज नहीं होती, क्योंकि उसमें ऐतिहासिक महत्त्व साहित्यिकता के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। इस दृष्टि से गुप्तजी के यश का कलश हिंदी के सभी कवियों के ऊपर स्थापित है।
गुप्तजी के काव्य में जितना विस्तार है, उतना ही वैविध्य भी। उन्होंने कविता में प्रबंध से लेकर मुक्तक तक और निबंध से लेकर प्रगीत तक विपुल मात्रा में लिखे हैं। एक तरफ उनकी कविता में राष्ट्र और समाज बोलता है, तो दूसरी तरफ उसमें पीड़ित नारी के हृदय की धड़कन भी सुनाई देती है। कुल मिलाकर गुप्त-काव्य भारतीय राष्ट्र की संपूर्ण संस्कृति, उसके संपूर्ण सौंदर्य और उसके संपूर्ण संघर्ष को अभिव्यक्त करता है। आश्चर्य नहीं कि उन्हें स्वयं महात्मा गांधी ने ‘राष्ट्रकवि’ की अभिधा प्रदान की थी। विद्वानों ने उचित ही उनकी काव्य-संवेदना को अत्यंत गतिशील माना है। उस गतिशीलता में भारत के परंपरागत और आधुनिक मूल्यों का संगीत निरंतर सुनाई पड़ता है।
प्रस्तुत संचयन गुप्त जी के काव्य के उत्तमांश को पाठकों के सम्मुख उपस्थित करने का एक विनम्र प्रयास है। निश्चय ही इस संचयन से गुजरकर वे भी कवि के प्रति सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में बोल उठेंगे :
सूर सूर तुलसी शशि-लगता मिथ्यारोपण।
स्वर्गंगा तारापथ में कर आपके भ्रमण।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2002 |
Edition Year | 2024, Ed. 3rd |
Pages | 302p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 2 |