घर के झरोखे से बैठे-बैठे देखते रहिए, जाने कितने दृश्य आँखों के आगे चलचित्र की तरह गुज़रते जाते हैं, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की घटनाएँ। शिवानी जी के इस ‘वातायन’ से भी बहुत विस्तृत और रंग-बिरंगे दृश्य-पट दिखाई देते हैं। बिना पैसा-कौड़ी लिए हड्डी बिठानेवाला, चमचमाती मोटरों पर पोश होटलों में महँगे डिनर खाते लोग, और बाहर एक-एक दाने को तरसते भिखारी। न जाने कितनी पुरानी यादें, कितने कड़वे-तीते अनुभव, जो हमें रोज़ होते हैं, और इनके पीछे हैं लेखिका की गहरी संवेदना और अप्रतिम वर्णन शैली।
ऊँचे अधिकारी अपने इन्द्रासन से हटते ही किस प्रकार नगण्य हो जाते हैं, छोटे-छोटे दफ़्तरों के छोटे-छोटे अधिकारियों के हाथों किस प्रकार प्रताड़ना सहते हैं, मृत पति की पेंशन लेने किस प्रकार एक महिला को क़दम-क़दम पर हृदयहीन लालफ़ीताशाही का सामना करना पड़ता है, ये सब अनुभव मार्मिकता के साथ शिवानी के ‘वातायन’ में मिलते हैं। इनको निबन्ध की संज्ञा देने से इनका ठीक परिचय नहीं मिलता। ये झाँकियाँ हैं—केवल बाहरी नहीं, अन्तर की भी। लखनऊ के दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ में प्रति सप्ताह ‘वातायन’ को पढ़ने के लिए लोग कितने लालायित रहते हैं, इनको पढ़ने के बाद कितने फ़ोन और पत्र आते हैं लेखिका और सम्पादक दोनों के पास, यह इनकी लोकप्रियता का प्रमाण है।
शिवानी की प्रतिभा का यह नया आयाम है। इनमें गहरी पकड़ है जो उनकी कहानियों व उपन्यासों में मिलती है। साथ ही इनमें लेखिका के प्राचीन संस्कृत साहित्य के ज्ञान और सुसंस्कृत व्यक्तित्व का भी पुट है। इनसे हिन्दी पत्रकारिता में स्तम्भ-लेखन का स्तर ऊँचा हुआ है। अंग्रेज़ी में चार्ल्स डिकेंस, मार्क ट्वेन, रडयार्ड किपलिंग, चेस्टर्टन आदि के उत्कृष्ट निबन्ध और कथाएँ समाचार-पत्रों के माध्यम से ही पहली बार प्रस्तुत हुई थीं। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ विविध और विशाल पाठक वर्ग तक पहुँचती हैं और लेखक को नियमित और रेडीमेड श्रोता-मंडल देती हैं, परन्तु पत्र-पत्रिकाएँ एक बार पढ़कर फेंक दी जाती हैं, जबकि पुस्तकें साथ रहती हैं। ‘वातायन’ में शिवानी ने साहित्य-निधि दी है।
—अशोक जी
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2011 |
Edition Year | 2023, Ed. 3rd |
Pages | 92p |
Price | ₹795.00 |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1 |
Author: Shivani
शिवानी
जन्म : 17 अक्तूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात)।
शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल-पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी ही सलाह कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। शिवानी की पहली लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।
1979 में शिवानी जी को ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्ति-चित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए शिवानी ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे।
निधन : 21 मार्च, 2003 (दिल्ली)।
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