लेखक के इस मंतव्य से असहमत होना कठिन है कि दल और सत्ता की राजनीति में फँसे लोग दूरदर्शी नहीं हो सकते। लोकतांत्रिक कुरीतियों के बल पर घटिया लोगों ने बढ़िया लोगों को राजनीति से किनारे कर दिया है और खुद सब जगह छा गए हैं।
—विष्णु प्रभाकर
समाजवादी आदर्शों और सपनों की छाँह में पले और बड़े हुए श्री भोले, जयप्रकाश, लोहिया आदि के साथ रहे और उन्हें काफी नजदीक से देखा। उनकी निराशा में वो तमाम लोग उनके साथ रहे होंगे जिन्होंने समाजवादी आन्दोलन और उसके नेताओं से बड़ी आस लगा रखी थी।
—दिनमान
राजनीति, जिसे आवश्यक रूप से समाज की प्रगति का निमित्त होना चाहिए था, कैसे अपने साथ पूरे समाज को बहा कर गड्ढे की तरफ ले जाने लगी। राजनीति को अरुण भोले ने अपनी प्रेयसी कहा है और उसके प्रति उनका आवेग सर्वत्र स्पष्ट है, पर इस आवेग के बावजूद अरुण भोले अपनी नजर साफ रखते हैं। यह जैसे एक तटस्थ दर्शक की डायरी है। यही बात इसे इतना महत्त्वपूर्ण बनाती है जिससे यह पुस्तक पठनीय ही नही विचारोत्तेजक भी है।
—जनसत्ता
इस पुस्तक में एक रोचक उपन्यास के सभी तत्त्व वर्तमान हैं और एक बार हाथ में उठा लें तो बिना समाप्त किए इसे छोड़ने का जी नहीं चाहता।
—नई धारा
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Publication Year | 2023 |
Edition Year | 2023, Ed. 1st |
Pages | 208p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |