सांसारिकता से पलायन और सांसारिकता का स्वीकार—भारतीय मन सहस्राब्दियों से इन दोनों जीवन मूल्यों के बीच झूलता आ रहा है। दुनिया से भागने, उसे त्यागने में जो एक आत्ममुग्धता और आत्मश्लाघा है, परम्परित विश्वासों और संस्कारों के निर्वाह का जो गर्व है, उसी की उपज होते हैं बंसी उर्फ़ बाबाजी, जैसे चरित्र, जो इस उपन्यास के नायक हैं और जिसे सुपरिचित कवि-कथाकार रमेशचन्द्र शाह ने पूरी सजगता से रचा है।
लेखक की यह सजगता इस बात में भी है कि एक कठिन विषय को उसने अत्यन्त सहज भाषा-शिल्प में प्रस्तुत किया है और इस कौशल में भी कि उसका कथानायक अपनी समूची द्वन्द्वयात्रा में अपने ही बालसखा बंटी के शब्द-साक्ष्य से उद्वेलित और उत्प्रेरित है। लगता है जैसे वह उसी का दूसरा प्रतिरूप हो; यानी वह प्रतिरूप जिसे वह अपने ही किए जी नहीं पाया और जो अब उसकी अन्तर्विभक्त अवश था, उसके राग-विराग, विश्वास-अविश्वास और आशा-निराशा को निर्ममता से विश्लेषित कर रहा है। यही कारण है कि जब बंटी एक कृति के बहाने एक आत्मीय स्मृति की तरह बंसी को छू जाता है तो जैसे उसकी समूची साधना-भूमि डोल उठती है। वह सब जो उसके लिए मर चुका था, फिर से जीवित हो उठा और उसकी प्रत्येक निषिद्ध और दमित चित्तवृत्ति उसे प्रश्नाकुल करने लगी। उसकी यह प्रश्नाकुलता ही इस उपन्यास का मूलाधार है, जिससे भारतीय धर्म-दर्शन के कितने ही अनुत्तरित पहलू उजागर होते हैं।
संक्षेप में कहें तो ‘शाह की यह महत्त्वपूर्ण कथाकृति मनुष्य के उस वैयक्तिक सुखवाद का तात्त्विक चित्रण करती है, जिसके मूल में सांसारिकता की उपेक्षा का अतार्किक दर्शन निहित है।’
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Isbn 10 | 8171780814 |
Publication Year | 1990 |
Edition Year | 1998, Ed. 2nd |
Pages | 268p |
Price | ₹125.00 |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 18.5 X 12 X 1.5 |