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Gyanyog

Edition: 2025, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan - Remadhav
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Gyanyog

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‘ज्ञानयोग’ में स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त पर दिए गए विश्लेषणपरक भाषणों को संकलित किया गया है। इनमें कुछ भाषण लंदन में, कुछ अमेरिका में और कुछ अत्यत्र दिए गए थे।

उनका मानना था कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में वेदान्त निर्णायक रूप में उपयोगी साबित हो सकता है; कि वह मनुष्य के अब तक किए गए चिन्तन का उच्चतम फल है, संसार की समस्त विचार-सरणियों को अन्ततः उसी में विलीन होना है।

अत्यन्त सरल और सुगम भाषा में दिए गए इन वक्तव्यों में उन्होंने माया क्या है, मनुष्य का वास्तविक स्वरूप क्या है, माया और ईश्वर की अवधारणा का विकास किस प्रकार हुआ, संसार क्या है, आत्मा का स्वभाव क्या है, अमरत्व क्या है, आदि विषयों पर विचार किया है।

विवेकानन्द के चिन्तन की विशेषता ये है कि दर्शन के गूढ़ प्रश्नों पर वे जो भी विचार करते हैं, उसे हमारे भौतिक और वर्तमान जीवन से जोड़ते हुए, उसकी रोशनी में व्याख्यायित करते हुए करते हैं, यह विशेषता इन आलेखों और वक्तव्यों में भी दृष्टिगोचर होती है।

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Language Hindi
Binding Paper Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2025
Edition Year 2025, Ed. 1st
Pages 200p
Publisher Radhakrishna Prakashan - Remadhav
Dimensions 21.5 X 14 X 1
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Swami Vivekanand

Author: Swami Vivekanand

स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के अग्रणी आध्यात्मिक-धार्मिक नेता और समाज-सुधारक थे। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उन्होंने कलकत्ता मेट्रोपॉलिटन स्कूल और प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता से शिक्षा ग्रहण की। 1880 में वे केशवचन्द्र सेन और देवेन्द्रनाथ ठाकुर की अगुआई वाले साधारण ब्रह्म समाज से जुड़े लेकिन 1881 में रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात के बाद उनके शिष्य बन गए। 1886 में रामकृष्ण के देहान्त के बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण कर पूरे भारत का भ्रमण किया और भारतीय जनगण की यथार्थ स्थिति को अपनी आँखों देखा। 1893 में 11 सितम्बर को उन्होंने शिकागो, अमेरिका में आयोजित विश्व धर्म-संसद को सम्बोधित किया, इस सम्बोधन ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया। 1896 में उन्होंने न्यूयॉर्क में वेदान्त सोसाइटी का गठन किया। लगभग ढाई वर्ष के अपने अमेरिका-प्रवास के दौरान उन्होंने कई पाश्चात्य देशों में जाकर व्याख्यान दिए। भारत लौटने के बाद 1897 में 1 मई को उन्होंने अपने गुरुभाइयों के साथ मिलकर रामकृष्ण की शिक्षाओं के प्रचार और मानव-सेवा के उद्देश्य से रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं—‘राजयोग’, ‘कर्मयोग’, ‘ज्ञानयोग’, ‘भक्तियोग’, ‘धर्मतत्त्व’, ‘शिक्षा’, ‘संस्कृति और समाजवाद’, ‘मेरे गुरु’, ‘भारतीय नारी’, ‘भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश’ आदि।

4 जुलाई, 1902 को बेलूर मठ, बेलूर में उनका निधन हो गया। 

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