कला संस्कृति की वाहिका है। भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व्याप्त मानवीय एवं रसात्मक तत्त्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक एकरूप कर देता है। मानवीय सम्बन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और उसके माध्यम से चेतना को कला उजागर करती है। अस्तु चेतना का मूल ‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्त्व बनाकर रखती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में अद्यतन पुरातात्त्विक अन्वेषणों एवं निष्कर्षों के साथ-साथ कला के आधारगत शास्त्रों के आलोक में प्राचीन भारतीय कला का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। हड़प्पा काल से लेकर पूर्वमध्य काल तक की समस्त कला शैलियों का क्रमागत विकास एवं उनमें निहित प्रतीकों, भाषाओं एवं विलक्षणताओं की गहन समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। अब तक प्राचीन भारतीय कला का सरल हिन्दी भाषा के माध्यम से समग्र एवं मानक अध्ययन नहीं हो सका था। यह ग्रन्थ सुधी पाठकों, शोधार्थियों एवं कला के विद्यार्थियों के लिए अधुनातन सूचनाओं एवं समीक्षाओं से पूरित होने के कारण बहुत उपयोगी है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2004 |
Edition Year | 2024, Ed. 4th |
Pages | 294p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 24 X 16 X 2 |