Bhartiya Ank-Paddhati Ki Kahani

विश्व संस्कृति को भारत की एक महानतम देन है—दस अंक-संकेतों पर आधारित स्थानमान अंक-पद्धति। आज सारे सभ्य संसार में इसी दशमिक स्थानमान अंक-पद्धति का इस्तेमाल होता है। न केवल यह अंक-पद्धति बल्कि इसके साथ संसार के अनेक देशों में प्रयुक्त होने वाले 1, 2, 3, 9...और शून्य संकेत भी, जिन्हें आज हम ‘भारतीय अन्तरराष्ट्रीय अंक’ कहते हैं, भारतीय उत्पत्ति के हैं। देवनागरी अंकों की तरह इनकी व्युत्पत्ति भी पुराने ब्राह्मी अंकों से हुई है।
‘भारतीय अंक-पद्धति की कहानी’ में भारतीय प्रतिभा की इस महान उपलब्धि के उद्गम और देश-विदेश में इसके प्रचार-प्रसार का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। साथ ही, अपने तथा दूसरे देशों में प्रचलित पुरानी अंक-पद्धतियों का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अन्त में, आजकल के इलेक्ट्रॉनिक गणक-यंत्रों में प्रयुक्त होनेवाली द्वि-आधारी अंक-पद्धति को भी समझाया गया है। इस प्रकार, इस पुस्तक में आदिम समाज से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख गणना-पद्धतियों की जानकारी मिल जाती है। विभिन्न अंक-पद्धतियों के स्वरूप को भली-भाँति समझने के लिए पुस्तक में लगभग चालीस चित्र हैं। न केवल विज्ञान के, विशेषतः गणित के विद्यार्थी, बल्कि भारतीय संस्कृति के अध्येता भी इस पुस्तक को उपयोगी पाएँगे।
हमारे शासन ने ‘भारतीय अन्तरराष्ट्रीय अंकों’ को ‘राष्ट्रीय अंकों’ के रूप में स्वीकार किया है। फिर भी, बहुतों के दिमाग़ में इन ‘अन्तरराष्ट्रीय अंकों’ के बारे में आज भी काफ़ी भ्रम है—विशेषतः हिन्दी-जगत् में। इस भ्रम को सही ढंग से दूर करने के लिए हमारे शासन की ओर से अभी तक कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है। ‘भारतीय अन्तरराष्ट्रीय अंकों’ की उत्पत्ति एवं विकास को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करनेवाली यह हिन्दी में, सम्भवतः भारतीय भाषाओं में, पहली पुस्तक है।
‘भारतीय अंक-पद्धति की कहानी’ एक प्रकार से लेखक की इस माला में प्रकाशित भारतीय लिपियों की कहानी की परिपूरक कृति है। अतः इसे भारतीय इतिहास और पुरालिपि-शास्त्र के पाठक भी उपयोगी पाएँगे।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 1975 |
Edition Year | 2009, Ed. 2nd |
Pages | 106p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 1 |
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