‘उत्तरकथा’ के प्रथम खंड को पढ़ते हुए महसूस होता है कि जैसे लेखक, लूसिएँ गोल्डमान के उत्पत्तिमूलक संघटनात्मक समाजशास्त्र के सहारे पुराने मालवा के ख़ौफ़नाक अँधेरे को एक विशिष्ट सामाजिक स्थिति में एक निश्चित वरण की अनिवार्यता का सामना करते हुए उभार रहा है और उजाले में समस्याओं की एक शृंखला प्रस्तुत करते हुए आलोचनात्मक चित्र और चरित्र उकेरते हुए सार्थक समाधान की सम्भावना तक आना चाहता है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि पूरा उपन्यास आध्यात्मिक सरोकारों से विच्छिन्न नहीं है। उपन्यास का नायक शिवशंकर आचार्य दुःख-भोग और दायित्व वहन के क्रम में करुणा का अकलंक पुरुष है। ...त्रयम्बक और दुर्गा भारतीय दम्पति के शिवपार्वती जैसे आदर्श हैं। शिवशंकर आचार्य, भारतीय मनीषा की चारित्रिक स्थिति का नाम है। यह चरित्र नहीं है। यह बीज-चरित्र को गोद लेकर वृक्षत्व प्रदान करते हैं...लेखक ने केवल कथा नहीं कही है, बल्कि...उनके बीच से चेतना के अनिवार्य नैरन्तर्य को तलाशा है...तभी तो यह केवल कथा नहीं है, उत्तरकालीन कथा नहीं है, बल्कि प्रश्नों के समाधान की, उत्तर की भी कथा है।
—श्री श्रीराम वर्मा (जनपक्ष)
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2011 |
Edition Year | 2011, Ed. 4th |
Pages | 532p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 3 |