हेमा दीक्षित ने कठिन काव्य-क्षेत्र में एक सहमा विकम्पित-सा क़दम रखा है। लेकिन जल्दी ही यह साफ़ हो जाता है कि जीवन-संघर्ष में वह कविता को अपना सम्बल और लड़ने का आयुध बनाना चाहती हैं। यह आग्रह उन्हें काव्य व्यक्तित्व देता है और उनके उपक्रम को जेनुइन बनाता है। कविता की अपनी पहली किताब में वह अपने स्वत्व और उसे कह पाने वाली भाषा के आविष्कार में सन्नद्ध दिखती हैं। काव्यशास्त्र में कविता के प्रयोजन के बारे में प्रायः पूछा जाता है कि कविता लिखने का उद्देश्य क्या है? हेमा के लिए इसका उत्तर यह है कि वह अपनी विकलताओं को कविता में लाना चाहती हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जीवन की निजता को कविता में लाते हुए वह बहुत नैसर्गिक तरीक़े से निर्वैयक्तिकता को कविता में अनुस्यूत होने देती हैं। इस तरह निजी दुख सार्वजनीन दुख का प्रतिनिधि बन जाता है, अपना सन्ताप दुनिया का सन्ताप और न्याय को न पाने की निजी त्रासदी तमाम लोगों के न्याय को न पाने की अवस्थिति में बदल जाती है। इस तरह आत्म-सजगता के बावजूद आत्म-गरिमा का क्षरण नहीं होता जो आत्म-विस्तार में बदलकर किसी भी आत्म-ग्रस्तता का निषेध बन जाता है। उनकी कविता का पाठ किसी साँचे में ढले ऐस्थेटिक्स से न तो अनुकूलित है और न उसमें विद्रोह की कोई चौंकाने वाली अनावश्यक भंगिमा ही है। ऐसा भी नहीं कि उनकी सहज साहसिकता कविताओं में अव्यक्त रह जाए। अन्तर्वस्तु को न खोने का हठ यदि कविता का आत्मिक गुण माना जाता हो तो हेमा की कविता में उसकी ख़ला नहीं।
—देवी प्रसाद मिश्र
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2024 |
Edition Year | 2024, Ed. 1st |
Pages | 152p |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |