Kavyatmakata Ka DikKal

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Kavyatmakata Ka DikKal

काव्‍य पर विचार करना बहुत आसान भी हो सकता है और कठिन भी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम किस अयन में खड़े होकर काव्‍य को देख रहे हैं तथा उसके साथ हमारा अक्षांश-देशान्‍तर क्‍या है। यदि काव्‍य हमारे लिए केवल मनोरंजन, या तात्‍कालिक प्रतिक्रिया, या फतवेबाज़ी है तो काव्‍य की इस प्रकृति, स्‍वरूप और सत्‍ता को जानने में कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी, लेकिन यदि वह हमारे लिए एक गम्‍भीर सृजनात्‍मक कर्म या रचनात्‍मक दायित्‍व तथा सत्‍ता है जिससे हम ग्रथित हैं तो हमारी जिज्ञासा और पड़ताल का दायरा शायद बहुत अधिक गहन और विशाल होगा।

सृष्‍ट जीवन को पुन: रचकर काव्‍य एक प्रतिजीवन बनकर अपनी सृजनात्‍मक उपस्थिति से जीवन पर देश और काल में प्रश्‍नचिह्न लगाता चलता है, इसीलिए काव्‍य का न तो कोई देश होता है और न ही कोई काल। जीवन की सार्वदेशिकता तथा शाश्‍वतता की तरह ही काव्‍य भी सार्वदेशिक और शाश्‍वत होता है।

यदि हम वास्‍तव में काव्‍य को जानना चाहते हैं तो सम्‍भव है, हमें साहित्‍य की अपनी क्षेत्रीय समझ और वर्तमानवादी आग्रही दृष्टि को विस्‍तृत करना होगा, अन्‍यथा वह बाधा बन जाएगी। वैसे सर्वथा अनाग्रही होना तो शायद सम्‍भव भी नहीं और कुछ होता भी नहीं, फिर भी यदि एक प्रकार का वैचारिक खुलापन देश और काल दोनों स्‍तरों पर बनाए रख सकें तो हम काव्‍य की दिशा में बढ़ सकते हैं। यह वैचारिक खुलापन ही कुतुबनुमा का काम करेगा।

इस पुस्‍तक में मनीषी कवि श्रीनरेश मेहता के उन व्‍याख्‍यानों को संकलित किया गया है जो उन्‍होंने पंजाब विश्‍वविद्यालय, चंडीगढ़ की ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी व्‍याख्‍यानमाला’ के तहत दिए थे।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 1991
Edition Year 1991, Ed. 1st
Pages 100p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1
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Shri Naresh Mehta

Author: Shri Naresh Mehta

श्रीनरेश मेहता

जन्म: 15 फरवरी, 1922 को शाजापुर (मालवा) में हुआ।

शिक्षा: आरम्भिक शिक्षा कई स्थानों पर हुई और बाद में माधव कॉलेज, उज्जैन से इंटरमीडिएट किया। आपने काशी विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया। यहाँ आप पर अपने गुरु श्री केशवप्रसाद मिश्र का गहरा प्रभाव पड़ा। श्री मिश्रजी वेद एवं उपनिषदों के ज्ञाता एवं प्रकांड पंडित थे।

उज्जैन में ही आप स्वाधीनता आन्दोलन (1942) में छात्र-नेता के रूप में सक्रिय हुए। सन् 1948 से 53 तक आप आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों पर कार्यक्रम अधिकारी रहे। 1955 तक आप वामपंथी राजनीति से भी सम्बद्ध रहे। विद्यार्थी-काल में वाराणसी से प्रकाशित दैनिक ‘आज’ और ‘संसार’ में कार्यरत रहे। सन् 1953 में सरकारी सेवा से मुक्त होकर कुछ समय के लिए गांधी प्रतिष्ठान से जुड़े और तत्पश्चात् राष्ट्रीय मज़दूर कांग्रेस के प्रमुख साप्ताहिक ‘भारतीय श्रमिक’ के प्रधान सम्पादक रहे। साथ ही ‘कृति’ एवं ‘आगामी कल’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सम्पादन किया।

सम्मान: ‘म.प्र. शासन सम्मान’, ‘सारस्वत सम्मान’, ‘म.प्र. शासन शिखर सम्मान’, ‘उ.प्र. शासन संस्थान सम्मान’। 1985 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, उ.प्र. शासन का सर्वोच्च ‘भारत भारतीसम्मान’, म.प्र. नाटक लोककला अकादमी द्वारा अलंकृत, म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘भवभूति अलंकरण’और सन् 1992 में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’।

लेखन : सन् 1959 से 85 तक आपने इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन किया। 1985 से फरवरी, 1992 तक प्रेमचन्द सृजनपीठ के निदेशक रहे। प्रमुख दैनिक ‘चौथा संसार’ के प्रधान सम्पादक भी रहे। काव्य, खंडकाव्य, उपन्यास, एकांकी, कहानी, निबन्ध, यात्रा-वृत्तान्त आदि विधाओं में 40 से ज़्यादा रचनाएँ प्रकाशित। आपकी सम्पूर्ण रचनाएँ 11 खंडों में प्रकाशित ‘श्रीनरेश मेहता रचनावली’ में शामिल हैं।

निधन : 22 नवम्बर, 2000

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