Aranya

Edition: 2012
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
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Aranya

काव्य का स्थान समस्त वैचारिक सत्ता में न केवल सर्वोपरि है, बल्कि अपनी भाववाची सृजनात्मक प्रकृति के कारण परमपद भी कहा जा सकता है। अन्य वैचारिक सत्ताएँ, भले ही वे धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान या अध्यात्म की ही क्यों न हों, भाववाची सृजनात्मक न होने के कारण किसी-न-किसी कारण से सीमाएँ हैं। इस अर्थ में काव्य ही एकमात्र निर्दोष सत्ता है। वैचारिक विराटता जब सृजनात्मक और संकल्पात्मक होती है, तब उस ऋतम्भरा मधुमती-भूमिका की प्रतीति सम्भव है जिसके लिए धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान या अध्यात्म विभिन्न माध्यम और मार्ग सुझाते हैं। सामान्यत: तो प्रयोजन एक ही है, अत: काव्य का भी प्रयोजन है कि मनुष्य मात्र को उसके भीतर जो अनभिव्यक्त ‘पुरुष’ है (जिसे दर्शन ‘योगमाया-सुप्त’ की संज्ञा देता है) उसको रूपायित तथा संचरित किया जाए, साथ ही जितनी भी पदार्थिक सत्ताएँ हैं, उनको उनके महत् रूप ‘प्रकृति’ के साथ तदाकृत किया
जाए।

राम और सूर्य के बीच यह गायत्री-छन्द ही अनाहूत भाव से शब्द-यज्ञ कर रहा है। जब तक यह काव्य का शब्द-यज्ञ सम्पन्न होता रहेगा तब तक यह सृष्टि पुरुष और प्रकृति की मिथुन मूर्ति बनकर लीला करती रहेगी। अत: हम चाहें तो कह सकते हैं कि समस्त जैविकता के लिए किए गए शब्द-यज्ञ का नाम ही काव्य है।

वैसे ‘यज्ञ’ शब्द से चौंकने की कोई आवश्यकता नहीं है। शब्द का उच्चरित होना ही यज्ञ है। किसी भी काल, किसी भी देश और किसी भी भाषा की कविता हमारे न जानने और न चाहने पर भी शब्द-यज्ञ ही कर रही है।

सृष्टि में जो कुछ भी तथा जैसा कुछ भी अथवा जिस किसी रूप में है, वह काव्य है। विराट् में जिस प्रकार पंक्ति-पावनता नहीं है क्योंकि वह अपांक्तेय है, इसलिए काव्य भी अपांक्तेय है और, इसलिए कवि को भी अपांक्तेय होना होगा।

— भूमिका से

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Language Hindi
Binding Hard Back
Edition Year 2012
Pages 96p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 21 X 14 X 1
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Shri Naresh Mehta

Author: Shri Naresh Mehta

श्रीनरेश मेहता

जन्म: 15 फरवरी, 1922 को शाजापुर (मालवा) में हुआ।

शिक्षा: आरम्भिक शिक्षा कई स्थानों पर हुई और बाद में माधव कॉलेज, उज्जैन से इंटरमीडिएट किया। आपने काशी विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया। यहाँ आप पर अपने गुरु श्री केशवप्रसाद मिश्र का गहरा प्रभाव पड़ा। श्री मिश्रजी वेद एवं उपनिषदों के ज्ञाता एवं प्रकांड पंडित थे।

उज्जैन में ही आप स्वाधीनता आन्दोलन (1942) में छात्र-नेता के रूप में सक्रिय हुए। सन् 1948 से 53 तक आप आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों पर कार्यक्रम अधिकारी रहे। 1955 तक आप वामपंथी राजनीति से भी सम्बद्ध रहे। विद्यार्थी-काल में वाराणसी से प्रकाशित दैनिक ‘आज’ और ‘संसार’ में कार्यरत रहे। सन् 1953 में सरकारी सेवा से मुक्त होकर कुछ समय के लिए गांधी प्रतिष्ठान से जुड़े और तत्पश्चात् राष्ट्रीय मज़दूर कांग्रेस के प्रमुख साप्ताहिक ‘भारतीय श्रमिक’ के प्रधान सम्पादक रहे। साथ ही ‘कृति’ एवं ‘आगामी कल’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सम्पादन किया।

सम्मान: ‘म.प्र. शासन सम्मान’, ‘सारस्वत सम्मान’, ‘म.प्र. शासन शिखर सम्मान’, ‘उ.प्र. शासन संस्थान सम्मान’। 1985 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, उ.प्र. शासन का सर्वोच्च ‘भारत भारतीसम्मान’, म.प्र. नाटक लोककला अकादमी द्वारा अलंकृत, म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘भवभूति अलंकरण’और सन् 1992 में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’।

लेखन : सन् 1959 से 85 तक आपने इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन किया। 1985 से फरवरी, 1992 तक प्रेमचन्द सृजनपीठ के निदेशक रहे। प्रमुख दैनिक ‘चौथा संसार’ के प्रधान सम्पादक भी रहे। काव्य, खंडकाव्य, उपन्यास, एकांकी, कहानी, निबन्ध, यात्रा-वृत्तान्त आदि विधाओं में 40 से ज़्यादा रचनाएँ प्रकाशित। आपकी सम्पूर्ण रचनाएँ 11 खंडों में प्रकाशित ‘श्रीनरेश मेहता रचनावली’ में शामिल हैं।

निधन : 22 नवम्बर, 2000

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