संयुक्त परिवार में दिनोंदिन बढ़ती दरार शहरी मध्यवित्त बंगाली लोगों के जीवन और मानसिकता पर एक प्रचंड झंझावात के रूप में हमलावर हो उठी है, जिसने अत्यन्त सफल सन्तानों की गर्भधारिणी अनगिनत माताओं को एक नए-निराले वानप्रस्थ के सामने ला खड़ा किया
है।
जो औरतें, ज़िन्दगी-भर सपना देखती हैं कि उम्र के आख़िरी पड़ाव पर वे अपनी गृहस्थी की सिरमौर होंगी; अपने पोते-पोतियों, नाती-नातिनों में मग्न रहकर, बाक़ी उम्र गुज़ार देंगी, आज के दौर में वही औरतें आश्रय की तलाश में भटकने को लाचार हैं। जीवन की ढलती साँझ में उन लोगों के बचे-खुचे दिन, नितान्त स्वजनहीन, अनजान-अपरिचित दिगन्त की ओर अभिमुख हैं। उस दिगन्त में न तो घर-गृहस्थी है, न रसोई, न पूजा-घर। उनके हिस्से में बचा रहता है, घंटी बजने पर खाने के कमरे तक जाकर, बस, लम्बी क़तार में खड़े हो जाना।
इसके बावजूद, इन सबके बीच भी, ये औरतें कई-कई उपायों से अपनी ज़िन्दगी के मायने तलाश करने की कोशिश करती रहती हैं। ज़िन्दगी के साठ साल गुज़ारकर ये औरतें मानवता के हेमन्ती बाग़ान में जा पहुँची हैं, जहाँ का अगला मौसम होता है—शीत! गहनतम बर्फ़ीला मौसम। ऐसे ही लोगों के सुख-दु:ख, प्यार-सपनों की अचीन्ही, अनन्य, अन्तरंग व्यथा-कथा से बुना हुआ है नवनीता देव सेन का यह विलक्षण उपन्यास।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Sushil Gupta |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2009 |
Edition Year | 2009, Ed. 1st |
Pages | 139p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |