‘सहज-साधना’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अत्यंत महत्त्वपूर्ण कृतियों में से एक है, क्योंकि इससे उनके सर्वोपरि विवेच्य—मध्यकाल को सही परिप्रेक्ष्य में सहज ही समझा-समझाया जा सकता है। कबीर के अनुसार, माया से बद्ध जीव इस जगत को मिथ्या समझता है। ऐसा समझनेवाले योगियों को वे अज्ञानी कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार से भागना अथवा योग और तंत्र के कृच्छाचार का निर्वाह करना सच्ची साधना नहीं, बल्कि सच्ची साधना कर्म करते हुए अपने बाहर और भीतर ईश्वरीय सत्ता का अनुभव करना है। कबीर और उनके समकालीन अन्य
संत-भक्तों का यह विचार एक दिन की उपज नहीं था, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में मध्यकालीन शैवों, बौद्धों और नाथपंथियों की विचारधारा को प्रभावित करनेवाले पूर्ववर्ती संप्रदायों की भी एक सुदीर्घ परंपरा है, जिसका इस पुस्तक में सम्यक विवेचन हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आचार्य द्विवेदी ने
इसमें भारतीय अध्यात्मचेतना की क्रमिक परिणतियों और उनकी विभिन्न साधना-पद्धतियों का गहन विश्लेषण किया है। तुलनात्मक अध्ययन और परीक्षणों से गुजरते हुए मनुष्य के अनुभवजन्य ज्ञान को जो वैज्ञानिकता प्राप्त हुई और इससे उसे जो
एक समन्वयात्मक रूप मिला, कबीर उसे ही
‘सहज-साधना’ कहते हैं, अर्थात अध्यात्म-जगत का समन्वयमूलक वैज्ञानिक रूप ।
वस्तुतः मध्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चेतना—भक्ति आंदोलन के सही स्वरूप-विवेचन के लिए आचार्य द्विवेदी ने जो असाध्य साधना की, ‘सहज-साधना’ उसी का एक महत्त्वपूर्ण सोपान है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1982 |
Edition Year | 2024, Ed. 3rd |
Pages | 130p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 18 X 12.5 X 1 |