आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का रचना-संसार वैविध्यपूर्ण और साहित्यिक व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे संस्कृत के शास्त्री थे, ज्योतिष के आचार्य। कवि, आलोचक, उपन्यासकार, निबन्धकार, सम्पादक, अनुवादक और भी न जाने क्या-क्या थे। वे पंडित भी थे और प्रोफ़ेसर भी, आचार्य तो थे ही। वे अपने समय के एक बहुत ही अच्छे वक्ता थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एक कुशल अध्यापक और सच्चे जिज्ञासु अनुसन्धाता थे। बलराज साहनी ने उनकी इस अनुसंधान वृति को लक्षित करते हुए लिखा है, ‘‘सूई से लेकर सोशिलिज्म तक सभी वस्तुओं का अनुसन्धान करने के लिए वे उत्सुक रहते।’’ तभी तो वे, बालू से भी तेल निकाल लेने की बात करते हैं, अगर सही और ठीक ढंग का बालू मिल जाए। उनके इस अनुसन्धान और अध्ययन-मनन की सबसे बड़ी ताक़त थी एक साथ कई भाषाओं और परम्पराओं की जानकारी। वे जहाँ संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश जैसी प्राचीन भारतीय भाषाओं के साथ भारतीय साहित्य, दर्शन चिन्तन की ज्ञान-परम्पराओं को अपनी सांस्कृतिक-चेतना में धारण किए हुए थे, वहीं हिन्दी, अंग्रेज़ी, बांग्ला और पंजाबी जैसी आधुनिक भारतीय व विदेशी भाषाओं के साथ आधुनिक ज्ञान-परम्परा को भी। परम्परा और आधुनिकता का ऐसा मेल कम ही साहित्यकारों में देखने को मिलता है। परम्परा और आधुनिकता के इस प्रीतिकर मेल से उन्होंने हिन्दी साहित्य-शास्त्र को मूल्यांकन का एक नया आयाम दिया। लोक और शास्त्र को जिस इतिहास-बोध से द्विवेदी जी ने मूल्यांकित किया है, वह इस नाते महत्त्वपूर्ण है कि उसमें किसी तरह का महिमामंडन या भाव-विह्वल गौरव गान नहीं मिलता, बल्कि एक वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है, जिसका पहला और आख़िरी लक्ष्य मनुष्य है—उसका मृत्य, उसकी मबीता और उसका श्रम है।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Vinod Tiwari |
Publication Year | 2018 |
Edition Year | 2018, Ed. 1st |
Pages | 222p |
Publisher | Lokbharti Prakashan |