Pitri Rin

Author: Prabhu Joshi
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Pitri Rin
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प्रभु जोशी, कदाचित् हिन्दी के ऐसे कथाकार-चित्रकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनात्मक मौलिकता के बलबूते पर, कला बिरादरी में भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर, कई सम्मान अर्जित कर, एक निश्चित पहचान बनाई है।

प्रस्तुत संग्रह में प्रभु जोशी की वे कहानियाँ हैं, जो सन् 1973 से 77 के बीच लिखीं-छपीं और जिन्होंने आज से कोई पैंतीस वर्ष पूर्व अपने गहरे आत्म-सजग, चित्रात्मक और लगभग एक सिस्मोग्राफ़ की तरह 'संवेदनशील भाषिक मुहावरे’ के चलते, 'धर्मयुग’, 'सारिका’, 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के विशाल पाठक-समुदाय के बीच, एक विशिष्ट सम्मानजनक जगह बनाई थी। और कहने की ज़रूरत नहीं कि ये कहानियाँ, समय के इतने लम्बे अन्तराल के बाद, आज भी, अपने पढ़े जाने के दौरान, बार-बार यह बताती हैं कि 'विचार’ और 'संवेदना’ को, कैसी अपूर्व दक्षता के साथ, एक अविभाज्य कलात्मक-यौगिक की तरह रखा जा सकता है।

हालाँकि, ये कहानियाँ मूल रूप से सम्बन्धों की ही कहानियाँ हैं, लेकिन इनमें सर्वत्र व्याप्त, वे तमाम दारुण दु:ख, हमारे ‘समय’ और ‘समाज’ के भीतर घटते उस यथार्थ को उसकी समूची ‘क्रूरता और करुणा’ के साथ प्रकट करते हैं, जो इस दोगली अर्थव्यवस्था का गिरेबान पकड़कर पूछते हैं कि 'कल के विरुद्ध बिना किसी कल के’ खड़े आदमी को, कौन इस अन्ध-नियति की तरफ़ लगातार ढकेलता चला आ रहा है?

बेशक, इन कहानियों में पात्र किसी ख़ास ‘विचारधारा’ के शौर्य से तमतमाए हुए नहीं हैं, लेकिन वे लड़ रहे हैं। और उनकी लड़ाई का प्राथमिक कारण, वह ‘सामाजिक कोप’ है, जो उनके वर्ग की नियति को बदलने के इरादे से, उनके स्वभाव की अनिवार्यता बन गया है। इसलिए निपट ‘देशज शब्द और मुहावरे’ कथा के भीतर की ‘हलातोल’ में, जीवन की कचड़घांद के त्रास को, पूरी पारदर्शिता के साथ रखते हैं।

इन कहानियों की भाषा, निश्चय ही, यों तो किसी दु:साध्य कलात्मक अभियान की ओर ले जाने की ज़िद प्रकट नहीं करती है, लेकिन उस 'अर्ध-विस्मृत गद्य के वैभव’ का अत्यन्त प्रीतिकर ढंग से पुन:स्मरण कराती है, जो पाठकीय विश्वसनीयता का अक्षुण्ण आधार रचने के काम में बहुधा एक कारगर भूमिका अदा करता है।

हो सकता है, कि कहानियों में व्याप्त ‘आत्मकथात्मक तत्त्व’, कहानी के परम्परागत ढाँचे की इरादतन की गई अवहेलना में, शिल्प की रूढ़-रेखाओं को लाँघकर, वहाँ ऐसे वर्ज्य इलाक़ों में लिए जाते हों, जहाँ कला नहीं, जीवन ही जीवन अपने हलाहल के साथ हो, लेकिन जब अभिव्यक्ति की सच्चाई ही रचना का अन्तिम प्रतिपाद्य बन जाए तो ऐसी अराजकताएँ, निस्सन्देह सर्वथा सहज, नैसर्गिक और एक अनिवार्य से 'विचलन’ का स्वरूप अर्जित कर लेती हैं। और कहना न होगा कि यह 'विचलन’ यहाँ प्रभु जोशी की इन कहानियों में, 'हतप्रभ’ करने की सीमा तक उपस्थित है और पूरी तरह स्वीकार्य भी। हाँ, हमें हतप्रभ तो यह भी करता है कि ऐसे कथा-समर्थ रचनाकार ने कथा-लेखन से स्वयं को इतने लम्बे समय तक क्यों दूर किए रखा?

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Edition Year 2017, Ed 2nd
Pages 176p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
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Prabhu Joshi

Author: Prabhu Joshi

प्रभु जोशी

जन्म : 12 दिसम्बर, 1950 को देवास (म.प्र.) के गाँव पीपलरावाँ में।

जीवविज्ञान में स्नातक तथा रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर अध्ययन के उपरान्त अंग्रेज़ी साहित्य में भी प्रथम श्रेणी में एम.ए.। अंग्रेज़ी को कविता के ‘स्ट्रक्चरल ग्रामर’ पर विशेष अध्ययन।

पहली कहानी 1973 में 'धर्मयुग’ में प्रकाशित। ‘किस हाथ से’, ‘प्रभु जोशी की लम्बी कहानियाँ’ तथा ‘उत्तम पुरुष’ शीर्षक से तीन कथा-संग्रह। ‘नई दुनिया’ के सम्पादकीय तथा फ़ीचर पृष्ठों का पाँच वर्षों तक सम्पादन। ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘पहल’, ‘पूर्वग्रह’, ‘साक्षात्कार’, ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘संडे आब्ज़र्वर’, ‘फ़्री प्रेस जर्नल’, ‘आर्ट वर्ल्ड’, ‘विज़न’, ‘नेटवर्क’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी तथा अंग्रेज़ी में, लेखों, टिप्पणियों तथा कहानियों का प्रकाशन।

चित्रकारी बचपन से। जलरंग में विशेष रुचि। लिंसिस्टोन तथा हरबर्ट गैलरीज, ऑस्ट्रेलिया के त्रिनाले में चित्र प्रदर्शित। गैलरी-फ़ॉर कैलिफ़ोर्निया (यू.एस.ए.) का जलरंग हेतु ढाई हज़ार डॉलर का पुरस्कार तथा ‘थामसमोरान अवॉर्ड’। ट्वेंटी फ़र्स्ट सेन्चुरी गैलरी, न्यूयॉर्क के टॉप सेवेंटी में शामिल। भारत भवन का चित्रकला तथा म.प्र. साहित्य परिषद का कथा-कहानी के लिए ‘अखिल भारतीय सम्मान’। साहित्य के लिए म.प्र. संस्कृति विभाग द्वारा ‘गजानन माधव मुक्तिबोध फ़ेलोशिप’। बर्लिन में सम्पन्न जनसंचार की अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धा में 'ऑफ्टर ऑल हाउ लांग’ रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार। धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर डाली, पिकासो, कुमार गन्धर्व तथा उस्ताद अमीर ख़ाँ पर केन्द्रित रेडियो कार्यक्रमों को आकाशवाणी के ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’। संगीत तथा चित्रकला पर विशेष लेखन। 'इम्पैक्ट ऑफ़ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसाइटी’ विषय पर किए गए अध्ययन को ऑडियंस रिसर्च विंग का राष्ट्रीय पुरस्कार। दूरदर्शन में रहते हुए इंडियन क्लासिक्स शृंखला में तीन टेलीफ़िल्मों का निर्माण। 'दो कलाकार’ नामक टेलीफ़िल्म एशिया पेसिफ़िक स्पर्द्धा में भारत की तरफ़ से एकमात्र प्रविष्टि की तरह प्रेषित।

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