हिन्दी कविता की धारा में गजानन माधव मुक्तिबोध का हस्तक्षेप जितना निर्णायक रहा, उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका आलोचना के पैमानों को तय करने में भी उनकी रही। ‘नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ में संकलित आलेखों से आगे के आलोचकों को न सिर्फ़ कविता और साहित्य को समझने की दृष्टि प्राप्त हुई, बल्कि कवियों और रचनाकारों को भी मुक्तिबोध के चिन्तन से एक नया ‘विज़न’ मिला।
‘जनता का साहित्य किसे कहते हैं?’ शीर्षक आलेख में मुक्तिबोध जनधर्मी साहित्य की परिभाषा देते हुए कहते हैं : ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आनेवाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। अगर ऐसा होता तो क़िस्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलन्दी, बारीकी और ख़ूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक़्शा साहित्य में रहता है, सुनने या पढ़नेवाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार।...‘जनता का साहित्य’ का अर्थ ‘जनता के लिए साहित्य’ से है।...ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो।’
इसी प्रकार साहित्य, साहित्य की प्रासंगिकता, रचना-प्रक्रिया, प्रयोगवादी और नई कविता की प्रकृति, रचना की आवश्यकता और साहित्य के मार्क्सवादी पहलू पर मुक्तिबोध ने नितान्त मौलिक और वस्तुनिष्ठ नज़रिए से विचार किया है।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1971 |
Edition Year | 2023, Ed. 5th |
Pages | 167p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |