‘कामायनी : एक पुनर्विचार’, समकालीन साहित्य के मूल्यांकन के सन्दर्भ में, नए मूल्यों का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उसके द्वारा मुक्तिबोध ने पुरानी लीक से एकदम हटकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ को एक विराट फ़ैंटेसी के रूप में व्याख्यायित किया है, और वह भी इस वैज्ञानिकता के साथ कि उस प्रसिद्ध महाकाव्य के इर्द-गिर्द पूर्ववर्ती सौन्दर्यवादी-रसवादी आलोचकों द्वारा बड़े यत्न से कड़ी की गई लम्बी और ऊँची प्राचीर अचानक भरभराकर ढह जाती है।
मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत यह पुनर्मूल्यांकन बिलकुल नए सिरे से ‘कामायनी’ की अन्तरंग छानबीन का एक सहसा चौंका देनेवाला परिणाम है। इसमें मनु, श्रद्धा और इडा जैसे पौराणिक पात्र अपनी परम्परागत ऐतिहासिक सत्ता खोकर विशुद्ध मानव-चरित्र के रूप में उभरते हैं और मुक्तिबोध उन्हें इसी रूप में आँकते और वास्तविकता को पकड़ने का प्रयास करते हैं। उन्होंने वस्तु-सत्य की परख के लिए अपनी समाजशास्त्रीय ‘आँख’ का उपयोग किया है और ऐसा करते हुए वह ‘कामायनी’ के मिथकीय सन्दर्भ को समकालीन प्रासंगिकता से जोड़ देने का अपना ऐतिहासिक दायित्व निभा पाने में समर्थ हुए हैं।
‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ व्यावहारिक समीक्षा के क्ष्रेत्र में एक सर्वथा नवीन विवेचन-विश्लेषण-पद्धति का प्रतिमान है। यह न केवल ‘कामायनी’ के प्रति सही समझ बढ़ाने की दिशा में नई दृष्टि और नवीन वैचारिकता जगाता है, बल्कि इसे आधार-ग्रन्थ मानकर मुक्तिबोध की कविता को और उनकी रचना-प्रक्रिया को भी अच्छे ढंग से समझा जा सकता है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Translator One |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1950 |
Edition Year | 2023, Ed. 13th |
Pages | 168p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |