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Log Bhool Gaye Hain-Hard Cover

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रघुवीर सहाय की कविताओं में हम एक ऐसे आधुनिक मानस को देख पाते हैं जो बौद्धिक और रागात्मक अनुभूतियों से सन्तुष्ट होकर अपने लिए एक सुरक्षित संसार की सृष्टि नहीं कर लेता; उसमें रहने लगना कवि के लिए एक भयावह कल्पना है। आज के पतनशील समाज में ऐसे अनेक सुरक्षित संसार विविध कार्य–क्षेत्रों में बन गए हैं—साहित्य में भी—और इनमें बूड़ जाने का ख़तरा पिछले कुछ वर्षों में बढ़ते–बढ़ते तीव्रतम हो गया है। परन्तु (बातचीत में रघुवीर सहाय कहते हैं कि) समाज कविताओं से भरा पड़ा है : सड़क पर चलते ही हम उनसे टकराएँगे और हर कविता एक नया परिचय कराएगी। इस संग्रह की रचनाएँ कवि के निरन्तर बढ़ते हुए परिचयों के पीछे उसकी सामाजिक चेतना के विकास का भी संकेत देती हैं : कवि की चिन्ता है कि उस विकास के बिना कविता लिखते जाने का कोई मतलब ही नहीं होगा।

आज के पतनशील समाज के प्रति कवि की दृष्टि विरोध की है, परन्तु वह अपने काव्यानुभव से जानता है कि वह रचना जो पाठक के मन में पतन का विकल्प जाग्रत् नहीं करती, न साहित्य की उपलब्धि होती है न समाज की। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की परम्परा में वह उस शक्ति को बचा रखने को आतुर है जो उसने ‘दूसरा सप्तक’ और ‘सीढ़ियों पर धूप में’ पाई थी और जिस पर आए हुए ख़तरे को उसने ‘हँसो, हँसो जल्दी हँसो’ में दिखाया था। वह मानता है कि यही खोज नए समाज में न्याय और बराबरी की सच्ची लोकतंत्रीय समझ और आकांक्षा जगाती है और ऐसे समाज की रचना के लिए साहित्यिक और साहित्येतर क्षेत्रों में संघर्ष का आधार बनती है। जहाँ कहीं जन की यह शक्ति पतनोन्मुख संस्कृति के माध्यमों द्वारा भ्रष्ट की जा रही हो वहाँ वह चेतावनी देता है और जहाँ वह बची रहने पर भी देखी नहीं जा रही हो, उसकी पहचान कराता है। वह बचाने के लिए तोड़ता है और तोड़ने के लिए तोड़ने के व्यावसायिक उद्देश्य का विरोध करता है। पीड़ा को पहचानने की कोशिश वह ऐसे करता है कि उसी समय पीड़ा का सामाजिक अर्थ भी प्रकट हो जाए—वह मानता है कि सामाजिक चेतना का कोई अक्षर भंडार नहीं हो सकता, उसकी समृद्धि लोकतंत्र के पक्ष में संघर्ष से करती रहनी पड़ती है और इसी तरह सामाजिक नैतिकता की भी। ये कविताएँ इसी परम्परा की आज के दौर की अभिव्यक्तियाँ हैं।

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Language Hindi
Binding Hard Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 1982
Edition Year 2024, Ed. 10th
Pages 103p
Price ₹495.00
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1.5
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Raghuvir Sahay

Author: Raghuvir Sahay

रघुवीर सहाय

जन्म : 9 दिसम्बर, 1929; लखनऊ। शिक्षा : लखनऊ विश्वविद्यालय से 1951 में अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए.। समाचार जगत में ‘नवजीवन’ (लखनऊ) से आरम्भ करके पहले समाचार विभाग, आकाशवाणी, नई दिल्ली में और फिर ‘नवभारत टाइम्स’ नई दिल्ली में विशेष संवाददाता और फिर 1979 से 1982 तक ‘दिनमान’ समाचार साप्ताहिक के प्रधान सम्पादक रहे। उसके बाद अपने अन्तिम दिनों तक स्वतंत्र लेखन करते रहे। 1988 में ‘भारतीय प्रेस परिषद’ के सदस्य मनोनीत। साहित्य के क्षेत्र में ‘प्रतीक’ (दिल्ली), ‘कल्पना’ (हैदराबाद) और ‘वाक्’ (दिल्ली) के सम्पादक-मंडल में रहे। कविताएँ ‘दूसरा सप्तक’ (1951), ‘सीढ़ियों पर धूप में’ (1960), ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ (1967), ‘हँसो, हँसो जल्दी हँसो’ (1975), ‘लोग भूल गए हैं’ (1982) और ‘कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ’ (1989) में संकलित हैं। कहानियाँ ‘सीढ़ियों पर धूप में’, ‘रास्ता इधर से है’ (1972) और ‘जो आदमी हम बना रहे हैं’ (1983) में और निबन्‍ध ‘सीढ़ियों पर धूप में’, ‘दिल्ली मेरा परदेस’ (1976), ‘लिखने का कारण’ (1978), ‘ऊबे हुए सुखी’ और ‘वे और नहीं होंगे जो मारे जाएँगे’ (1983) में उपलब्ध हैं। इसके अलावा कई नाटकों और उपन्यासों के अनुवाद भी किए हैं। सम्पूर्ण रचनाकर्म ‘रघुवीर सहाय रचनावली’ में प्रस्तुत है। ‘लोग भूल गए हैं’ को 1984 का राष्ट्रीय ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला। मरणोपरान्‍त हंगरी के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान, बिहार सरकार के ‘राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान’ और ‘आचार्य नरेन्द्रदेव सम्मान’ से सम्मानित किया गया। निधन : 30 दिसम्बर, 1990

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