Krishnavtar : Vol. 6 : Mahamuni Vayas

Author: K. M. Munshi
Translator: Shiv Ratan Thanvi
Edition: 2024 Ed. 12th
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Krishnavtar : Vol. 6 : Mahamuni Vayas
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उपन्यास को आधुनिक मूल्यबोध की विधा कहा गया है—व्यक्ति के रूप में विकसित होते हुए मनुष्य का आख्यान। गुजराती के महान लेखक क.मा. मुंशी की ‘कृष्णावतार’ शीर्षक यह उपन्यास-शृंखला भारतीय लोकमानस के आराध्य सखा श्रीकृष्ण के जीवन को मानवी रूप में स्थापित करती हुई हमें कृष्ण को एक व्यक्ति के रूप में देखने का मौका देती है। पौराणिक परम्पराओं, विभिन्न भाषाओं के साहित्यों और लोकमान्यताओं में बसी कृष्ण-छवियों को एक बहुस्तरीय लेकिन समग्र व्यक्तित्व में रूपान्तरित करने का जैसा सफल प्रयास इस उपन्यास में हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
‘महाभारत’ श्रीकृष्ण की जीवन-यात्रा का अनिवार्य लौकिक सन्दर्भ है और अपने तनाव, संघर्ष, संत्रास और विडम्बना-बोध के चलते आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है। इस महाकथा के महत्त्वपूर्ण प्रसंग नई अर्थ-व्याख्या के साथ इस शृंखला में आए हैं। पुनः-पुनः पाठ के लिए आमंत्रित करते कृष्ण का जीवन और महाभारत के पात्रों की आधुनिक पुनः प्रस्तुति के लिए इस शृंखला को पढ़ा जाना एक जरूरी बौद्धिक कार्य है।
मूल महाभारत के रचयिता, तीर्थ-संस्कृति के जनक और ‘श्रुति’ को प्रामाणिक रूप से लिपिबद्ध करनेवाले कृष्ण द्वैपायन व्यास अपने जीवनकाल में ही एक महान धर्म-निर्माता, महामुनि, यहाँ तक कि भगवान वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे। लेकिन एक मछुवारे की कन्या के गर्भ से पैदा होकर इस महान गौरव तक वे किस प्रकार पहुँचे, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यह उपन्यास इसी अभाव की सुन्दरतम पूर्ति है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 1983
Edition Year 2024 Ed. 12th
Pages 231p
Translator Shiv Ratan Thanvi
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 21.5 X 14 X 1.5
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K. M. Munshi

Author: K. M. Munshi

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

गुजराती के सुप्रसिद्ध कथाकार, इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ तथा प्राच्य विद्या के बहुश्रुत विद्वान।

जन्म : 30 दिसम्बर, 1887, भड़ौच (गुजरात)।

शिक्षा : बी.ए., एल.एल.बी., डी.लिट्., एल.एल.डी.।

प्रारम्भ (1915) में ‘यंग इंडिया’ के संयुक्त सम्पादक, सन् 1938 से आजीवन, भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष और ‘भवन्स जर्नल’ के सम्पादक। सन् 1937-57 के दौरान दस वर्षों तक गुजराती साहित्य परिषद की अध्यक्षता की। सन् 1944 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष। सन् 1951 से मृत्युपर्यन्त वह संस्कृत विश्व परिषद के भी अध्यक्ष रहे। सन् 1952 से 1957 तक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का पद-भार सँभाला। उसी दौरान सन् 1957 में उन्होंने भारतीय इतिहास कांग्रेस की अध्यक्षता की।

प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ : ‘लोमहर्षिणी’, ‘लोपामुद्रा’, ‘भगवान परशुराम’, ‘तपस्विनी’, ‘पृथ्वीवल्लभ’, ‘भग्नपादुका’, ‘पाटण का प्रभुत्व’, कृष्णावतार के सात खंड—‘बंसी की धुन’, ‘रुक्मिणीहरण’, ‘पाँच पांडव’, ‘महाबली भीम’, ‘सत्यभामा’, ‘महामुनि व्यास’, ‘युधिष्ठिर’ (उपन्यास); ‘वाह रे मैं वाह’ (नाटक); ‘आधे रास्ते’, ‘सीधी चढ़ान’, ‘स्वप्नसिद्धि की खोज में’ (आत्मकथा के तीन खंड)।

निधन : 8 फरवरी, 1971

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